________________
३१६
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
सारी पाठ रहा होगा। परन्तु इस पाठ में जो वार्तिक अथवा भाष्यवचन परिभाषारूपेण सम्मिलित हैं, वे निश्चय ही पाणिनीय प्रवचन में नहीं थे।
दूसरा वैशिष्टय इस वृत्ति की प्रौढ़ता तथा विचार-गहनता है। ५ यह वृत्ति सम्पूर्ण वृत्तियों से सब से अधिक विस्तृत है, अतः यह बृहद्
वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध हैं। - परिभाषासंख्या में भेद-सीरदेवीय परिभाषावृत्ति के काशी संस्करण में परिभाषाओं की संख्या १३३ है। काशीनाथ अभ्यङ्कर द्वारा प्रकाशित परिभाषा संग्रह में १३० संख्या है।
व्याख्याकार १-श्रीमानशर्मा (सं० १५००-१५५० वि०) श्रीमानशर्मा नामक विद्वान् ने सीरदेवीय परिभाषापाठ पर विजया नाम्नी टिप्पणी लिखी है । इसका हस्तलेख भण्डारकर प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान पूना में है।
परिचय-श्रीमानशर्मा ने अपनी विजया टिप्पणी के अन्त में अपना परिचय इस प्रकार दिया है।
'अनुन्यासादिसारस्य का श्रीमानशर्मणा।
श्रीलक्ष्मीपतिपुत्रेण विजयेयं विनिर्मिता॥ इति वारेन्द्रचम्पाहट्टीय श्रीश्रीमानशर्मनिम्मिता सीरदेवबृहत्२० परिभाषावृत्तिटिप्पणी विजयाख्या समाप्ता।'
इस निर्देश के अनुसार श्रीमानशर्मा के पिता का नाम लक्ष्मीपति था, और वह वारेन्द्र चम्पाहट्टि कुल का था।
श्रीमानशर्मा ने अपने वर्षकृत्य ग्रन्थ के अन्त में अपने को व्याकरण तर्क सुकृत (=कर्मकाण्ड) आगम और काव्यशास्त्र का इन्दु कहा २५ है । यह पद्मनाभ मिश्र का गुरु था।
काल-श्रीमानशर्मा का काल सं० १५००-१५५० वि० के मध्य है। · श्रीमानशर्मा के विशेष परिचय के लिए देखिए दिनेशचन्द्र भट्टान चार्य सम्पादित परिभाषावृत्ति-ज्ञापकसमुच्चय (राजशाही-बङ्गाल)