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परिभाषा - पाठ के प्रवक्ता श्रीर व्याख्याता
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ग्रन्थ और लिखा है । इसमें अष्टाध्यायी के क्रम से तत्तत् सूत्रों से ज्ञापित होनेवाले विविध नियमों का विस्तार से विवरण लिखा है । ज्ञापकसमुच्चय की रचना परिभाषावृत्ति के अनन्तर हुई, यह इसके प्रथम श्लोक तथा अनेक स्थानों पर परिभाषावृत्ति के उल्लेख से स्पष्ट है।
४. सीरदेव (सं० १२०० - १४०० वि० )
सीरदेव विरचित परिभाषावृत्ति बहुत वर्ष पूर्व काशी से प्रकाशित हो चुकी है। इसका नवीन संस्करण पं० काशीनाथ अभ्यङ्कर ने परिभाषा संग्रह के अन्तर्गत प्रकाशित किया है ।
परिचय - सीरदेव ने परिभाषावृत्ति में अपना कोई परिचय नहीं १० दिया । अतः इसका देश काल आदि अज्ञात है |
काल - सीरदेव ने परिभाषावृत्ति में जितने ग्रन्थकारों का स्मरण किया है, उनमें सब से अर्वाचीन पुरुषोत्तमदेव है ( द्र०-पृष्ठ १६, १५०, १७५ काशी सं०') । यह सीरदेव के समय की पूर्व सीमा है । सीरदेव को उद्धृत करनेवालों में सायण सब से प्राचीन है । वह धातुवृत्ति में १५ अनेकत्र सीरदेव की परिभाषावृत्ति को उद्धृत करता हैं । यथा
क - यदुक्तं सीरदेवेन व्यधिक परिभाषायाः " तदपि वृत्तिवार्तिकविरोधादेव प्रत्युत्तम् । द्य त धातु ७२८, पृष्ठ १२६, चौखम्बा सं० । ख- प्रचिकीर्तत् इति सिद्ध्यर्थमनित्यत्वं चास्या वदन् सीरदेवोsपि प्रत्युक्तः । कृत धातु १०।११६, पृष्ठ ३८६, चौखम्बा सं० ।
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यह सीरदेव के काल की उत्तर सीमा है । इस प्रकार सीरदेव का काल स्थूलतया सं० १२०० - १४०० वि० के मध्य है । महामहो - पाध्याय अभ्यङ्करं ने सीरदेव का काल ईसा की १२वीं शती माना है ।
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परिभाषावृत्ति का वैशिष्ट्य - यह परिभाषापाठ अष्टाध्यायी के क्रम से तत्तत् सूत्रों से ज्ञापित अथवा तत्सम्बन्धी वार्तिक प्रादिरूप २८ वचनों का संग्रहरूप है | हमारे विचार में यदि पाणिनि ने किसी परिभाषापाठ का प्रवचन किया होगा, तो वह यही अष्टाध्यायीक्रमानु
१. परिभाषा संग्रह में क्रमश: पृष्ठ १७१.२४७,२६३ ।