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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
३ – पाणिनि (२६०० वि० पूर्व )
परिभाषापाठ के कई हस्तलेख तथा वृत्तिग्रन्थ ऐसे हैं, जिनके अन्त में परिभाषात्रों को पाणिनीय, पाणिनि-प्रोक्त वा पाणिनि-विरचित कहा है । यथा -
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१. डियार (मद्रास) के हस्तलेख संग्रह के सूचीपत्र भाग २ (सन् १९२८) पृष्ठ ७२ पर परिभाषा सूत्रों का एक हस्तलेख निर्दिष्ट है । उसमें लिखा है - परिभाषासूत्राणि पाणिनिकृतानि ।'
२. पूर्व ( पृष्ठ ३१०, भाग २ ) परिभाषात्रों के विविध - पाठनिर्देश प्रकरणान्तर्गत तृतीय पाठ में पुरुषोत्तमदेव की परिभाषा - १० वृत्ति के अन्त का जो पाठ उद्धृत किया है, उससे भी यही ध्वनित होता है कि कोई परिभाषासूत्र वा पाठ पाणिनिप्रोक्त है ।
निष्कर्ष - पूर्वापर सभी पक्षों पर विचार करके हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पाणिनि ने स्वतन्त्र सम्बद्ध किसी परिभाषापाठ का प्रवचन किया था। हमारे विचार की पुष्टि महाभाष्य ११४१२ के
'पठिष्यति ह्याचार्यः सकृद्गतौ विप्रतिषेधे यद् बावितं तद् बाधितमेव इति ।'
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वचन से भी होती है । क्योंकि महाभाष्य में आचार्य पद का निर्देश पाणिनि और कात्यायन के लिए ही किया जाता है । नागेश ने इस पर लिखा है कि श्राचार्य से यहां वार्तिककार अभिप्रेत है । परन्तु २० सम्पूर्ण महाभाष्य में कहीं पर भी यह परिभाषा वार्तिक रूप में पठित नहीं है । अतः यहां पाणिनि के लिए प्रयुक्त हुआ आचार्य पद परिभाषापाठ के पाणिनीय-प्रवचन को ही स्पष्ट कर रहा है । श्रत एव उसी के अनुकरण पर पाणिनि से उत्तरवर्ती वैयाकरण भी बराबर स्व-तन्त्र-संबद्ध परिभाषा-पाठों का प्रायः प्रवचन करते प्रा रहे हैं ।
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हां, यह हो सकता है कि पाणिनीय परिभाषाओं का मूल आधार व्याडि की अपने तन्त्र से संबद्ध परिभाषाएं हों। ऐसा होने पर परिभाषापाठ के पूर्व निर्दिष्ट द्वितीय पाठ के अन्त की पंक्ति इति व्याडविरचिताः पाणिनीयपरिभाषाः समाप्ताः का अभिप्राय अधिक
१. भाष्य आचार्यो वार्तिककारः ।