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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
सीरदेव लिखता है-'परिभाषा हि नाम न साक्षात् पाणिनीयवचनानि । किं तहि ? नानाचार्याणाम् ।' परिभाषावृत्ति, पृष्ठ १८६, परिभाषा संग्रह (पूना) पृष्ठ २६८ ।
सीरदेव से पूर्वभावी पुरुषोत्तमदेव का भी यही मत है।'
इसी प्रकार कैयट (प्रदीप ६।२।४६); हरदत्त (पद० भाग १, पृष्ठ ४०३), तथा सायण (भू धातु पर)ने परिभाषाओं को पूर्वाचार्यों के वचन कहा है।
ऐन्द्रादि तन्त्र मूल-नागेश भट्ट के शिष्य वैद्यनाथ पायगुण्ड ते परिभाषेन्दु शेखर की 'गदा' नाम्नी टीका में परिभाषाओं का मूल १० ऐन्द्र आदि तन्त्रों को माना है।
___ ये परिभाषाएं प्राचीन वैयाकरणों के शब्दानुशासनों में सूत्र अथवा उनके व्याख्यारूप वचन हैं । सम्भवतः इसी पक्ष को स्वीकार करके श्रीभोज ने परिभाषाओं को अपने सरस्वतीकण्ठाभरणरूप
शब्दानुशासन में पुनः अन्तनिहित कर लिया।' ५ परिभाषाओं के प्राश्रयण और अनाश्रयण की सीमा-सभी वैया
करणों का इन परिभाषाओं के सम्बन्ध में सामान्य मत यह है कि जहां इनके आश्रयण के विना शास्त्रीय कार्य-निर्वाह नहीं होता, वहां इन का प्राश्रयण किया जाता है । और जहां इनके आश्रयण से दोष प्राप्त होता है, वहां इनका आश्रयण नहीं किया जाता।
१. परिभाषा हि न पाणिनीयानि वचनानि । किं तर्हि, नानाचार्याणाम् । परिभाषावृत्ति, पृष्ठ ५५, परिभाषासंग्रह (पूना) पृष्ठ १६० ।
२. द्र०-प्राचीनवैयाकरणतन्त्रे वाचनिकानि (परिभाषेन्दुशेखर के प्रारम्भ में)। इसकी व्याख्या में वैद्यनाथ ने लिखा है-'प्राचीनेति इन्द्रादीत्यर्थः ।
३. प्रथमाध्याय के द्वितीय पाद में मध्य-मध्य में परिभाषाओं का संग्रह किया है।
४. तत्र पाणिनीये शब्दानुशासने यत्रैव विशिष्टविषये मुख्यलक्षणेन सिद्धिस्तत्रैवैता गत्यन्तरमपश्यद्भिराश्रीयन्ते । न तु यत्रतासां समाश्रयणे दोष एव प्रत्युपपद्यते तत्रताः समाश्रीयन्ते । पुरुषोत्तम देव, परिभाषावृत्ति, पृष्ठ ५५,
परिभाषा-संग्रह (पूना) पृष्ठ १६० । यही लेख अत्यल्प शब्दभेद से सीरदेवीय १० परिभाषावृत्ति में भी मिलता है। द्र०-पृष्ठ १८६, परिभाषासंग्रह, पूना पृष्ठ
२६६।