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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
ब्रह्मवाची प्रोम् का निपातों में अन्तर्भाव-गोपथब्राह्मण १।१।२६ में लिखा है कि वैयाकरण [ब्रह्मवाची] प्रोम् का निपातों में पाठ मानते हैं। इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि संभवतः प्राचीन वैया
करण निपातसंज्ञा में असत्त्व अद्रव्यवाचकत्व का निर्देश नहीं करते ५ थे। अन्यथा ब्रह्मवाची अोम शब्द का निपातों में परिगणन नहीं हो
सकता। निपात संज्ञा में असत्त्व का निर्देश न होने पर स्वर आदि अव्ययों का निपातों में कथंचित् अन्तर्भाव हो सकता है।
विधा विभाग-पाणिनीय शब्दानुशासन के अनुसार शब्द तीन प्रकार के हैं-नाम पाख्यात और अव्यय । उपसर्ग और कर्मप्रवचीनयों १० का निपातों में अन्तर्भाव होता है और निपातों का अव्ययों में।
दूसरे शब्दों में इस विभाग को नाम और पाव्यात की विभक्तियों से युक्त (=सविभक्तिक) तथा उभयविध विभक्ति रहित (=निर्विक्तिक) कह सकते हैं।
द्विधा विभाग-पाणिनीय तथा कतिपय अन्य तन्त्रों की प्रक्रिया १५ के अनुसार शब्दों के सुबन्त और तिङन्त दो हो विभाग हैं। पाणिनि
आदि ने पद संज्ञा की सिद्धि के लिए अव्ययों से भी स्वादि की उत्पत्ति करके उनके लोप का विधान किया है।
१. निपातेषु चैनं वैयाकरणाः पठन्ति ।
२. उणादिवृत्तिकार उज्ज्वलदत्त ने उणादि १३१४१ की व्याख्या में ब्रह्मवाची 'प्रोम्' शब्द की चादिपाठ से अव्यय संज्ञा मानी है—'चादित्वाद् अव्यय. त्वम्' । ऐसा ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी उणादिकोश १११४२ की व्याख्या में लिखा है । भट्टोजि दीक्षित ने उज्ज्वलदत्त के मत की समालोचना की है-'चादिपाठादव्ययत्वमित्युज्ज्वलदत्तः, तन्न, तेषामसत्त्वार्थत्वात् ।' सि० कौ० उणादिप्रकरण (सं० १३६) ।
३. कथंचित् इसलिए कहा है कि स्वर् आदि अव्ययों की निपात संज्ञा मानने पर 'निपाता आधुदात्ताः' से सर्वत्र प्राद्य दात्तत्व की प्राप्ति होगी, जो कि इष्ट नहीं है।
४. प्राग् रीश्वरान्निपाताः (अष्टा० ११४१५६) अधिकार के अन्तर्गत उपसर्ग और कर्मप्रवचनीय संज्ञाओं का निर्देश है ।
५. स्वरादिनिपातमव्ययम् । अष्टा ११११३७।। ६. अव्ययादाप्सुपः । अष्टा० २।४१५२॥
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