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________________ ३०४ संस्कृत-व्योकरण-शास्त्र का इतिहास परिभाषाओं का प्रामाण्य-द्वितीय प्रकार की परिभाषाएं सूत्र. पाठ से बहिर्भूत होती हुई भी सूत्र द्वारा ज्ञापित होने से, दूसरे शब्दों में सूत्रकार द्वारा उन नियमों के स्वीकृत होने से, तथा न्यायसिद्ध परिभाषाएं लोकविदित होने से वे सूत्रवत् प्रमाण मानी जाती हैं, और उनमें सूत्रवत् असिद्धादि कार्य होते हैं। परिभाषाओं का चातुविध्य-ये परिभाषाएं चार प्रकार की हैं १-जापित-जो परिभाषाएं किसी सूत्र से ज्ञापित होती हैं, वे 'ज्ञापित' परिभाषाएं कहाती हैं । यथा-व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति। २-न्यायसिद्ध-जो परिभाषाएं लौकिक न्यायानुकूल होती हैं, १० वे 'न्यायसिद्ध' कहाती हैं। यथा-गौणमुख्ययोमुख्य कार्यसम्प्रत्ययः । ३-वाचनिक-जो परिभाषाएं न तो सूत्र द्वारा ज्ञापित हैं, और न ही न्यायसिद्ध हैं, किन्तु प्राचार्यविशेष के वचन हैं, वे 'वाचनिक' मानी जाती हैं। वाचनिक के दो भेद-वाचनिक परिभाषाएं दो प्रकार की है। १५ एक तो वे जो वार्तिककार के वचन ही परिभाषारूप से स्वीकृत कर लिए गये हैं । और दूसरी वे-जो भाष्यकार के वचन हैं। कात्यायनवचन-परिभाषावृत्तिकार सीरदेव ने बहुत्र लिखा है 'अनिनस्मिन् ग्रहणान्यर्थ.............." । इदं च कात्यायनवचनं परिभाषारूपेण पठ्यते।' परिभाषावृत्ति, पृष्ठ १२१, परिभाषा संग्रह २० (पूना) पृष्ठ २३०। 'पूर्वत्रासिद्धीयमद्विवंचने ......"। सर्वस्य (११) इत्यत्रसूत्रे कात्यायनवाक्यमिदं परिभाषारूपेण पठ्यते ।' परिभाषावृत्ति. पृष्ठ १६१, परिभाषा संग्रह (पूना) पृष्ठ २५४ । पुरुषोत्तम देव ने भी इन दोनों परिभाषाओं के सम्बन्ध में ऐसा २५ ही लिखा है।' पतञ्जलिवचन–पुरुषोत्तमदेव लिखता है—'अन्तरङ्गबहिरङ्ग १. कात्यायनवचनमेतत् परिभाषारूपेण पठ्यते । क्रमशः परिभाषावृत्ति पष्ठ ३१.५१ (राजशाही सं०), परिभाषा संग्रह (पूना) क्रमशः पृष्ठ १४६. १५७॥
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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