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परिभाषा-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता ३०३ में स्थित होकर सारे शास्त्र को प्रकाशित करता है। जैसे अच्छे.प्रकार से प्रज्वलित दीप सारे घर को (कमरे को) प्रकाशित करता है। ,
कैयट ने भाष्य के उक्त पाठ की व्याख्या करते हुये लिखा है: 'कश्चिदिति परिभाषारूप इत्यर्थः।'
वस्तुतः दोनों लक्षणों में शब्दमात्र का भेद हैं, तात्त्विक भेद ५ नहीं है।
परिभाषा का द्वविध्य-उक्त प्रकार के नियम-वचन दो प्रकार के हैं । एक पाणिनीय आदि शास्त्रों में सूत्ररूप से पठित, दूसरे सूत्र आदि से ज्ञापित अथवा न्यायसिद्ध आदि।।
परिभाषाओं का अन्य विध्य-कातन्त्र व्याकरणीय परिभाषाओं १० के व्याख्याता परिभाषाओं को लिङ्गवती और विध्यङ्ग-शेषभूत इन दो भागों में विभक्त करते हैं । लिङ्गवती परिभाषा शास्त्र के एकदेश में स्थित हुई सम्पूर्ण शास्त्र को प्रकाशित करती है । कहा भी है -
एकस्थः सविता देवो यथा विश्व प्रकाशकः ।. .
तथा लिङ्गवती शास्त्रमेकस्थाऽपि प्रदीपयेत् ॥ . १५ विध्यङ्ग शेषभूत परिभाषा जहां-जहां आवश्यकता होती है वहांवहां पहुंच कर उन-उन विधियों का अवयव बनती है । यथा--
एकापि पुंश्चली पुंसां यथक प्रयाति च ।
विध्यङ्गः शेषभूता तद्विधि प्रत्यनुगच्छति ॥ पाणिनीय वैयाकरण परिभाषायों के इन स्वरूपों का निर्देश ,२० यथोद्देशं संज्ञा परिभाषम् (=जहां पढ़ी गई हैं अथवा ज्ञापित हैं, उन्हीं स्थान में बैठकर कार्य करनेवाली संज्ञा और परिभाषाएं होती है) तथा कार्यकालं संज्ञा परिभाषम् (=जहां कार्य का समय होता है वहां पहुंचने वाली संज्ञा और परिभाषाएं होती हैं) के रूप में करते हैं।' _ 'परिभाषा-पाठ' शब्द से वैयाकरण-निकाय में दूसरे प्रकार के नियामक वचनों का ही ग्रहण होता है । अतः इस अध्याय में उन्हीं परिभाषात्रों के ही प्रवक्ता और व्याख्याताओं का वर्णन किया जाएगा।
१. व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ १६३