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२९६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नाम लघुन्यास नाम्नी टीका लिखी है। इसी ने हैम लिङ्गानुशासन पर प्रवचूरि नाम से व्याख्या की है।
काल-कनकप्रभ के गुरु देवेन्द्र, देवेन्द्र के उदयचन्द्र, और उदयचन्द्र के हेमचन्द्र सूरि थे । अतः कनकप्रभ का काल विक्रम की १३ वीं शती है। - ३. जयानन्द सूरि-जयानन्द सूरि विरचित हैम लिङ्गानुशासन की वत्ति का निर्देश 'जैन सत्य-प्रकाश' वर्ष ७ दीपोत्सवी अङ्क पृष्ठ ८८ पर मिलता है । हर्ष लिङ्गानुशासन के सम्पादक ने इस ग्रन्थ का नाम लिङ्गानुशासनवृत्त्युद्धार लिखा है । (निवेदना पृष्ठ ३४)। इस नाम से यह हैम व्याख्यारूप प्रतीत होता है। हम इसके विषय में अधिक नहीं जानते।
४. केसरविजय-केसरविजय महाराज ने भी हैमलिङ्गानुशासन पर एक वृत्ति लिखी है । यह मुद्रित हो चुकी है। इसका
उल्लेख विजयक्षमाभद्र सूरि सम्पादित हैम लिङ्गानुशासन-विवरण के १५ निवेदन पृष्ठ ११ पर मिलता है।
विवरणव्याख्याकार-वल्लभगणि हैम लिङ्गानुशासन-विवरण पर प्राचार्य वल्लभगणि ने एक सुन्दर संक्षिप्त व्याख्या लिखी है।
परिचय-वल्लभगणि ने अपने आचार्य का नाम ज्ञानविमल २० उपाध्याय मिश्र लिखा है, और अपना वचनाचार्य विशेषण दिया है।
काल-ग्रन्थ के अन्त में निर्दिष्ट ४-५-६ श्लोकों से विदित होता है कि यह व्याख्या अकबर के राज्यकाल में जोधपुर में सूरसिंह राजा के शासनसमय में, जब खरतरगच्छ में जिनसिंह प्राचार्य रूप से
सुशोभित थे, तब सं० १६६१ वि० कार्तिक मास में पूर्ण हुई थी। अतः २५ यही काल वल्लभगणि का है।
व्याख्या-नाम-वल्लभगणि ने अपनी व्याख्या का नाम दुर्गपदप्रबोधा लिखा है।
परिमाण-अन्तिम श्लोक में दुर्गपदप्रबोधा का ग्रन्थमान दो सहस्र श्लोक कहा है।