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लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता . २९५ १५-अरुणदेव अरुण (वि० सं० ११९० से पूर्व)
अरुण अथवा अरुणदेव अथवा अरुणदत्त नामा वैयाकरण ने एक लिङ्गानुशासन लिखा था। इसका उल्लेख हेमचन्द्र ने स्वीय लिङ्गानुशासन के विवरण में अनेक स्थानों पर किया है । यथा
'वल्क: वल्कम्-तरुत्वक् । पुस्यपीति कश्चित् । क्लीवे हर्षाः ५ रुणौ।' पृष्ठ ११७, पं० २४ ।
अरुणदत्त के नाम से अरुण के लिङ्गानुशासन का एक उद्धरण सर्वानन्द की टीकासर्वस्व (भाग १, पृष्ठ १६४) में उद्धृत है।
व्याख्याकार-अरुणदेव ने स्वीय लिङ्गानुशासन पर कोई वृत्ति भी लिखी थी। उसके पाठ को प्राचार्य हेमचन्द्र असकृत् उद्धृत १० करता है । यथा'यदरुण-प्रधी रोगविशेषः।' पृष्ठ ६८, पं० ११ ।
अरुणदत्त के गणपाठ का निर्देश हम 'गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता' प्रकरण में (भाग २, पृष्ठ १९८) कर चुके हैं ।
अरुण के लिङ्गानुशासन के विषय में इससे अधिक हम कुछ नहीं " जानते।
१६-हेमचन्द्र सूरि (वि० सं० ११४५-१२२९)
आचार्य हेमचन्द्र ने स्वीय पञ्चाङ्ग शब्दानुशासन से संबद्ध लिङ्गानुशासन का प्रवचन किया है । यह लिङ्गानुशासन अन्य सभी लिङ्गानुशासनों की अपेक्षा विस्तृत है । इसमें विविध छन्दोयुक्त १३८ २० श्लोक हैं।
व्याख्याकार १. हेमचन्द्र-प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वीय शब्दानुशासन के समान इस लिङ्गानुशासन पर भी एक बृहत् स्वोपज्ञ विवरण लिखा है। इसकी दुर्गपदप्रबोध टीका में इसका वत्ति नाम से उल्लेख किया है। इस विवरण का ग्रन्थमान ३६८४ श्लोक है ।
२. कनकप्रभ-कनकप्रभ ने हैम बृहद्वृत्ति पर न्यासोद्धार अपर