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लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता २६३ है)। काशी मुद्रित शाकटायन लघुवृत्ति के अन्त में मुद्रित लिङ्गानुशासन में यह श्लोक नहीं है।
शाकटायन के विषय में विस्तार से प्रथम भाग में प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक १७ वें अध्याय में लिखा जा
चुका है। __ शाकटायनोय लिङ्गानुशासन में कहीं-कहीं पूर्वाचार्यों की संज्ञाओं का भी निर्देश है । यथा
क-४६ वें श्लोक में-'उर्थसोगुणिवत्।' इस पर टीकाकार ने लिखा है-'स इति पूर्वाचार्याणां समासस्याख्या।"
ख–६७ वें श्लोक में-'प्रकृतिलिङ्गवचनानि ।' इस पर टीका- १० कार लिखता है-'वचनमिति संख्यायाः पूर्वाचार्यसंज्ञा ।"
वृत्तिकार इस लिङ्गानुगासन पर किसी वैयाकरण ने व्याख्या लिखी थी। उस व्याख्या का संक्षेप हर्षवर्धन लिङ्गानुशासन के मद्रास संस्करण के अन्त में छपा है । यह व्याख्या किसकी है, यह अज्ञात है। पर १५ हमारा विचार है कि यह व्याख्या मूलग्रन्थकार की अपनी है, अथवा यक्षवर्मा की हो सकती है।
इससे अधिक इस लिङ्गानुशासन और इसकी वृत्ति के विषय में हम कुछ नहीं जानते।
यक्षवर्मा शाकटायन लिङ्गानुशासन पर यक्षवर्मा की टीका का उल्लेख हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन के सम्पादक ने निवेदना के पृष्ठ ३४ में संख्या ६ पर किया है।
१. द्रष्टव्य-दर्षलिङ्गानुशासन, मद्रास संस्क०, पृष्ठ १२७ । तुलना करो-राजासे ( पा० गण ५।१।१२८ ), पुरुषासे ( पा० गण ५।१।१३० ), २५ हृदयासे (पा० गण ५।१।१३०), वाजासे (पा० गण ४।१।१०५) ।
२. द्र०-हर्ष लिङ्गानुशासन, मद्रास सं० पृष्ठ १२८ ।