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३ - निरुक्त समुच्चयकार वररुचि ने योनि शब्द की उभयलिङ्गता में पाणिनीय लिङ्गसूत्र श्रोणियोन्यूर्मयः पुंसि च का प्रमाण देकर वैदिक वचन उद्धृत किया है - समुद्र ं वः प्रहिणोमि (शांखा० श्रौत ४०११ ६ ) इति च प्रयोगदर्शनात् । पृष्ठ २३, संस्क० २
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संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
यहां भाष्यकार ने षष्ठी तत्पुरुष और बहुव्रीहि दोनों ही समास होते हैं, यह दर्शाने के लिए वैदिक वचन उदाहृत किये हैं ।
उक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि शब्दप्रयोग के विषय में वैदिक ग्रन्थों का प्रमाण देना किसी प्रकार दोषावह नहीं है । मीमांसकों के मत में तो वैदिक और लौकिक शब्द समान हैं । अतः उनके मत में शब्द१० प्रयोग के विषय में वैदिक वचनों का प्रामाण्य उसी प्रकार श्रादरणीय है, जैसे शब्दशास्त्रों का ।
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वामन और उसके लिङ्गानुशासन के विषय में हम इससे अधिक कुछ नहीं जानते ।
नया संस्करण - इसका एक संस्करण गायकवाड ओरियण्टल सीरीज बड़ोदा से सन् १९९८ में छपा था । वह चिरकाल से अप्राप्य था । इसका एक सुन्दर संस्करण हमने वि० सं० २०२१ में प्रकाशित किया है। पुराने संस्करण में किसी प्रकार की कोई सूची नहीं थी । हमने इस संस्करण में चार परिशिष्ट छापे हैं, जिनमें अनेकविध सूचियां दी हैं ।
१२ - पाल्य कीर्ति ( वि० सं० ८७१-६२४ )
पाल्यकीर्ति ने स्व-तन्त्र संबद्ध लिङ्गानुशासन का प्रवचन किया था । यह पद्यबद्ध है । हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन के मद्रास संस्करण के अन्त में शाकटायन लिङ्गानुशासन किसी वृत्ति के संक्षेप के साथ. मुद्रित है। इसमें ७० श्लोक छपे हैं । परन्तु अन्तिम वाग्विषयस्य तु २५ महतः श्लोक शाकटायन-लिङ्गानुशासन का नहीं है । यह वररुचि के लिङ्गानुशासन का अन्तिम श्लोक है ( केवल श्लोक के अन्त्यपद में भेद
१. द्र० लोकवेदाधिकरण । अ० १, पा० ३ ।