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________________ लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता २६१ और वामन दोनों ही पाणिनीय शब्दानुशासन के अनुयायी हैं। इसलिए उनके द्वारा धर्म शब्द की नपुंसकता दर्शाने के लिए वैदिक मन्त्र का निर्देश करना किसी प्रकार प्रति साहस नहीं कहा जा सकता, अपितु उसे उचित ही कहना होगा। इतना ही नहीं, केवल लौकिक शब्दों के लिङ्गानुशासन में प्रवृत्त शाकटायन के लिङ्गानुशासन की ५ व्याख्या में भी धर्मशब्द के अपूर्व साधन अर्थ में नपुंसकत्व दर्शाने के लिए यही मन्त्र उद्धृत है ।' -शुचिः वामन ने तो १६वीं आर्या की वृत्ति में मासविशेषाणां नाम-: शुक्रः नभस्य प्रादि अन्य छान्दस पदों का भी निर्देश किया है । मासवाची शुचिः शुक्रः नभस्य शब्द छान्दस हैं। इसमें पाणिनीय भ्रष्टा- १० घ्यायी ४ । ४ । १२८ सूत्र और उसके वार्तिक प्रमाण हैं । काशिकाकार आदि सभी छन्दसि पद की अनुवृत्ति उक्त सूत्र में मानते हैं । शब्दप्रयोग में वैदिक वचन का प्रामाण्य १५ शब्दप्रयोग के विषय में वैदिक वचन का प्रामाण्य हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन के टीकाकार, लिङ्गानुशासनकार वामन और शाकटायनीय लिङ्गानुशासन के व्याख्याकार ने दिये हैं । यह ऊपर दर्शा चुके हैं । यह वैयाकरणों का प्रतिसाहस नहीं है, अपितु महाभाष्यकार पतञ्जलि जैसे प्रमाणभूत प्राचार्य से अनुमोदित मागं है । पतञ्जलि ने शब्दप्रयोग के विषय में दो स्थानों पर वैदिक वचन उद्धृत किये है | यथा २० १ उभयं खल्वपि दृश्यते । विरूपाणाप्येकेनानेकस्याभिधानं भवति । तद्यथा - द्यावा ह क्षामा ( ऋ० १०।१२।१) । द्यावा चिदस्मै पृथिवी नमेते ( ऋ० २।१२।१३) । महाभाष्य १।२।६४।। यहां महाभाष्यकार ने विरूपों के एकशेष में ऋङ मन्त्रों को उद्घृत किया है। २५ २ ' उभयं खल्वपि दृश्यते स्वस्ति सोमसखा, पुनरेहि गवांसखः । महा० १२ २३ ( द्वितीया श्रिता० ) । १. 'धर्ममपूर्वनिमित्ते' (श्लोक २० ) की व्याख्या में । द्रष्टव्य - मद्रासीय हर्ष लिङ्गानुशासन, परिशिष्ट, पृष्ठ १२६ ।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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