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२६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ इसी अभिप्राय की एक पंक्ति हर्षवर्धन के लिङ्गानुशासन की व्याख्या में मिलती है
'ऋतौ धर्मम्-ऋतौ धर्मक्रतो यज्ञे तत्साधने वर्तमानं धर्म नपुं. सकम् । यथा-तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।' पृष्ठ ३४ । ___निश्चय ही इन दोनों पंक्तियों में कोई किसी को आधारभूत है। हमारे विचार में वामन को पंक्ति का आधार हर्षलिङ्गानुशासन वृत्ति की पंक्ति है । अतः वामन हर्ष से उत्तरवर्ती है। यह हमारा विचारमात्र है । स्थिति इससे विपरीत भी हो सकती है । उस अवस्था में वामन का काल वि० सं० ७०० से पूर्व होगा।
हर्ष लिङ्गानुशासन के सम्पादक का साहस-हर्ष लिङ्गानुशासन के सम्पादक वे वेङ्कटराम शर्मा ने उक्त पंक्ति के विषय में लिखा
___ "परन्तु लौकिकसंस्कृतभाषायाः पदानां लिङ्गान्यनुशासितुमार•
ब्धस्य ग्रन्थस्य व्याख्यानाय प्रवृत्तः एकत्र धर्मशब्दस्य नपुंसकतां दर्श१५ यितुं 'तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्' लौकिकसंस्कृतातिगं वाक्यमुदा
जहार इतीदं मन्यामहे व्याख्याकारस्यैकमतिसाहसमिति ।" भूमिका, पृष्ठ ४०। ___ अर्थात्-लौकिक संस्कृतभाषा के पदों के लिङ्गों के अनुशासन के लिए प्रारब्ध ग्रन्थ के व्याख्यान में प्रवृत्त व्याख्याकार ने धर्म शब्द की नपुंसकलिङ्गता को दर्शाने के लिए 'तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्' यह वैदिक वाक्य उद्धृत किया है। हम समझते हैं यह व्याख्याकार का एक अति साहस है।
हमारे विचार में व्याख्याकार का प्रतिसाहस नहीं है, अपितु सम्पादक महोदय का व्याख्याकार का प्रतिसाहस दिखाना ही, अति
२५ साहस है।
हर्षवर्धन ने अपने ग्रन्थ में कहीं नहीं कहा कि 'मैं केवल लौकिक संस्कृत के पदों के लिङ्गों का ही अनुशासन करूंगा।' पाणिनीय व्याकरण को प्रमाण मानकर चलनेवाले लिङ्गानुशासनों में पाणिनीय
शब्दानुशासनवत् लौकिकों की प्रधानता तो कही जा सकती है, परन्तु ३० वैदिक पदों के अन्वाख्यान का परित्याग नहीं कहा जा सकता। हर्ष