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________________ २/३७ लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता २८६ इस दृष्टि से यह लिङ गानुशासन मव से संक्षिप्त है । ग्रन्थकार ने स्वयं कहा है 'लिङ्गानुशासनमहं वचम्याभिः समासेन' ॥१॥ इसकी व्याख्या में लिखा है'पूर्वाचार्याडिप्रमुखैलिङ्गानुशासनं सूत्ररुक्तम् ग्रन्थविस्तरेण च। ५ अहं पुनरार्याभिर्वच्मि सुखग्रहणार्थम् । वररुचिप्रभृतिभिरप्याचार्यरार्याभिरभिहितमेव, तदतिबहुना ग्रन्थेन, इत्यहं तु समासेन संक्षेपेण वच्मि ।' पृष्ठ २॥ अर्थात्-व्याडि आदि पूर्वाचार्यों ने लिङ्गानुशासन का प्रवचन सूत्रों में किया था, और विस्तार से। मैं आर्या छन्दों में कहता हूं, १० सुख से ग्रहण करने के लिए । वररुचि प्रभृति प्राचार्यों ने भी प्रार्या से ही लिङ्गानुशासन का कथन किया है, पर वह विस्तार से है। इसलिए मैं संक्षेप से कहता हूं। परिचय–वामन ने अपना कोई परिचय नहीं दिया । अतः इसका . वृत्त अन्धकारमय है। काल-वामन ने अपनी छठी आर्या की वृत्ति में जगत्तुङ्गसभा का निर्देश किया है। अनेक ऐतिहासिक विद्वान् इस निर्देश में कश्मीर अधिपति जयापीड, जिसका राज्यकाल वि० सं० ८५६-८७६ तक था, का संकेत मानते हैं। इस प्रकार वामनीय लिङ्गानुशासन के प्रथम सम्पादक चिम्मनलाल डी० दलाल अलंकारशास्त्रप्रणेता वामन २० और लिङ्गानुशासनकार वामन को एक मानते हैं। यद्यपि दोनों वामनों का ऐक्य अभी सन्देहास्पद है, तथापि इतना स्पष्टरूप से कहा जा सकता है कि लिङ्गानुशासनकार वामन वि०सं० ६०० से उत्तरवर्ती किसी भी प्रकार नहीं है । वामन ने अपने ग्रन्य में ८वीं शती से उत्तरकालीन किसी भी ग्रन्थ का उद्धरण अपनी वृत्ति २५ में नहीं दिया है । हां, पृष्ठ ८ पर ८वीं कारिका की वृत्ति में धर्म शब्द के विषय में लिखा है 'धर्मशब्दः धर्मसाधने योगादी वाच्ये । इदं धर्मम् । तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् (ऋग्वेद १९१६४।४३)।'
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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