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.. संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
साथ है । यह इसकी व्याख्या में कातन्त्र सूत्रों के उद्धरणों से स्पष्ट
है।
एक प्रनिर्दिष्ट मूल सूत्र - लिङ्गानुशासन कारिका ५२ को व्याख्य में ना ह्रस्वोपधाः स्वरे द्विः सूत्र उद्धृत है । सम्पादक ने इसके ५ मूलस्थान का निर्देश नहीं किया है । यह कातन्त्र १।५०७ का सन्धिकरण का सूत्र है ।
परिचय - दुर्गसिंह के विषय में इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में १७ वें अध्याय में कातन्त्र व्याकरण के प्रकरण में लिख चुके हैं ।
अनेक नाम - दुर्गसिंह ने इस ग्रन्थ के अन्त में अपने दुर्गात्मा दुर्ग १० दुर्गप नाम दर्शाए है ।
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'दुर्गसिंहोऽथ दुर्गात्मा दुर्गा दुर्गप इत्यपि ।
यस्य नामानि तेनैव लिङ्गवृत्तिरियं कृता ॥ ८८ ॥ काल—हमने इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में कातन्त्र व्याकरण के प्रकरण में दुर्गसिंह के काल विषय में चिन्तन करते हुए लिखा १५ है कि - कातन्त्र सम्प्रदाय में दो दुर्ग हैं। एक वृत्तिकार, दूसरा वृत्ति टीकाकार | वृत्तिकार का काल वि० सं० ७०० से पूर्व है, और टीकाकार का काल सम्भवतः वीं शताब्दी है । लिङ्गानुशासन के सम्पादक दत्तात्रेय गङ्गाधर कोपरकर एम. ए. ने लिङ्गानुशासन दुर्ग का काल ई० सन् ६००-६५० माना है ( द्र० भूमिका पृष्ठ १२ ) । २० हमारे विचार में लिङ्गानुशासन का प्रवक्ता वृत्तिकार दुर्ग हैं, न कि टीकाकार दुर्ग । अतः इसका काल वि० सं० ७०० से पूर्व ही मानना उचित है । गुरुपद हालदार के लेखानुसार रामनाथ चक्रवर्ती ने त्रिका. ण्डशेष और उसके पुत्र रत्नेश्वर चक्रवर्ती ने 'रत्नमाला' नाम से कातन्त्र व्याकरण से संबद्ध लिङ्गनुशासन रचा था । '
११ - वामन (वि० सं० ८५१ - ८७० )
वामन ने एक लिङ्गानुशासन का प्रवचन किया है, और इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है । लिङ्गानुशासन में केवल ३३ कारिकाए हैं
१. व्याकरणदर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ४२२ ।