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लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता २८७ इस पाठ के लिए लिङ्गानुशासन के सम्पादक ने लिखा है'तत्तु वाक्यं प्रकृतटीकायां नोपलभ्यते।' निवेदना पृष्ठ ४१ । अर्थात् उज्ज्वलदत्त उद्धृत वाक्य टीका में नहीं मिलता।
सम्पादक का उक्त लेख ठीक नहीं है। इस लिङ्गानुशासन के पृष्ठ ८ की व्याख्या में निम्न पाठ है
'वेदिः विदिः । नान्दिः पूर्वरङ्गः।' उज्ज्वलवृत्ति के मुद्रित पाठ जितने भ्रष्ट हैं, उनको देखते हुए कहा जा सकता है कि उज्ज्वलदत्त द्वारा शबर के नाम से उद्धृत पाठ इस टीका का ही है।
३. केशव के नानार्णवसंक्षेप भाग १, पृष्ठ १४६ में शबर स्वामी १० उद्धृत है । वह सम्भवतः हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन का टीकाकार ही है। हमारे पास यह कोश इस समय नहीं है । इसलिए निर्णय करने में असमर्थ हैं। - इस प्रकार नामद्वैध के कारण टीकाकार के नाम का निश्चय करना अत्यन्त कठिन है । पुनरपि बहुमत शबर स्वामी के पक्ष में है। १५ इस ग्रन्थ का पुनः सम्पादन होना चाहिये। अधिक से अधिक हस्तलेखों का संग्रह आवश्यक है। सम्भव हैं इस से व्याख्याकार के नाम का विवाद भी समाप्त हो जाये।
सम्पादक को भ्रान्ति- हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन के सम्पादक ने निवेदना, पृष्ठ XL (४०) में धर्मशब्द की नपुंसक लिङ्गता दर्शाने २० के लिये व्याख्याकार द्वारा वैदिक वचन को उद्धृत करने का प्रति साहस कहा है। इस पर विशेष विचार हमने आगे वामन के लिङ्गा. नुशासन के प्रकरण में ( पृष्ठ २८६ ) किया है । पाठक उक्त प्रकरण देखें।
१०-दुर्गसिंह (वि० सं० ७०० से पूर्व) दुर्गसिंह विरचित एक लिङ्गानुशासन डेक्कन कालेज पूना से प्रकाशित हुआ है । इसकी व्याख्या भी दुर्गसिंह कृत ही है।
तन्त्र-संबन्ध-इस लिङ्गानुशासन का संबन्ध कातन्त्र व्याकरण के