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२८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
सं० २८१ के हस्तलेख का पाठ हैकरोति स (श)बरस्वामी षड्वर्षः पञ्चिकामिमाम् ।
इससे विदित होता कि यह व्याख्या शबरस्वामी ने ६ वर्ष की वयः में रची थी और इसका नाम पञ्चिका है। इन दोनों हस्तलेखों ५ के अन्त में यह दीप्र (दोप्त) स्वामिसूनो बालवाचीवरस्य शबर
स्वामिनः कृतो...""पाठ मिलता है। बालवागीश्वर का अर्थ है बालक ही जो वाणी का स्वामी है उस शबरस्वामी की कृति में । इस स्थिति में प्रथितः शास्त्रकारेण पदग्रहण पूर्वकम् की संगति लगाना कठिन हो जाता है।
पूना के सूचीपत्र में इन हस्तलेखों के जो आद्यन्त के पाठ उद्धृत हैं, उससे प्रतीत होता है कि शबर स्वामी की टोका का पाठ मद्रास संस्करण की टीका से कुछ संक्षिप्त है।
पूना के संख्या २८१ के हस्तलेख के अन्त में सं० २६ लिखा है। इसे सचीपत्र के सम्पादक ने सप्तर्षि संवत् माना है। सप्तर्षि संवत ११ में २७ सौ वर्ष के प्रत्येक चक्र में १०० वर्ष के अनन्तर पुनः १-२ से वर्ष
गणना का व्यवहार कश्मीरादि प्रदेशों में होता है । अतः सं० २६ से काल विशेष का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। हम पूर्व दशपादी उणादि की माणिकचदेव की व्याख्या के प्रसंग में शारदा लिपि में लिखे गये हस्तलेख की निर्दिष्ट सं० ३० का उल्लेख कर चुके हैं। (द्र० पृष्ठ
२०
२५२)
अन्य ग्रन्थों में शवर स्वामी के नाम से उद्धरण १. वन्द्यघटीय सर्वानन्द ने अमरकोश २।६६१ के सृक्कणी पद पर लिखा है
'सक्थ्यस्थिदधि सक्व्यक्षि इत्यादिना इदन्तमपि शबरस्वामी पठति ।' भाग २, पृष्ठ ३५२।।
यह पाठ लिङ्गानुशासन के मुद्रित पाठ में ५वीं कारिका में मिलता है । टोका में इदं सृक्वि-मोष्ठ पर्यन्तः रूप में व्याख्यात है।
२. उज्ज्वलदत्त ने उणादि ४।११७ की टीका में शबर का निम्न पाठ उद्धृत किया है
'वितदिवेदिनन्दय इति शबरस्वामी।' पृष्ठ १७४ ।