________________
लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता २८५ निघृष्टचरणारविन्दाचार्यवररुचिविरचितो० का उल्लेख है। अत: पादग्रहणपूर्वकम् निर्देशमात्र से अन्य हर्ष की कल्पना अन्याय्य है।
कुछ भी हो, इसमें प्रसिद्ध वामनीय लिङ्गानुशासन का निर्देश न होने से उससे यह प्राचीन है, इतना स्पष्ट है।
टीकाकार हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन की जो टीका छपी है, उसके रचयिता के नाम के सम्बन्ध में कुछ विवाद है । और वह विवाद हस्तलेखों के द्विविध पाठ पर आश्रित है।
पं० वेङ्कटराम शर्मा को इस टीका के जो तीन हस्तलेख मिले हैं. उनके अन्त में भट्टभरद्वाजसूनोः पथिवीश्वरस्य कतौ पाठ मिलता है। १० तदनुसार व्याख्याकार का नाम पृथिवीश्वर और उसके पिता का नाम भट्ट भरद्वाज विदित होता है।
जर्मन संस्करण के सम्पादक के पास जो हस्तलेख था, उसमें उक्त पाठ के स्थान पर 'भट्टदीप्तस्वामिसूनोः बलवागीश्वरस्य शबरस्वामिनः' पाठ था।
हर्षवर्धन के लिङ्गानुशासन का सर्वार्थलक्षणा टीका सहित एक हस्तलेख जम्मू के रघुनाथ मन्दिर में है । उसके सूचीपत्र में टीकाकार का नाम शबरस्वामी दीपिस्वामिपुत्रः लिखा है ( पृष्ठ ४६ ) । ___ भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान पूना के संग्रह में हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन के दो हस्तलेख हैं। द्र० व्याकरण विभागीय २० सूचीपत्र (सन् १९३८) संख्या २८१, २८२ (पृष्ठ २३८-२४१)। ये दोनों शारदाक्षरों में भूर्जपत्र पर लिखे हुए हैं। इन में से संख्या २८० के हस्तलेख के प्रारम्भ में टीकाकार के प्रारम्भिक श्लोक नहीं हैं। हषवर्धन के लिङ्गानुशासनीय प्रारम्भिक तीन श्लोकों की व्याख्या नहीं है । संख्या २८१ के हस्तलेख के प्रारम्भ में मंगलाचरणादि के । ५ श्लोक मिलते हैं । मद्रास संस्करण में छपे हुए प्रारम्भिक ६ श्लोकों में से १, २, ३, तथा ६ठा श्लोक नहीं है । पांचवें श्लोक के उत्तरार्ध में पाठभेद है । मद्रास मुद्रित पाठ है
लिङ्गानुशासनव्याख्या करोति पृथिवीश्वरः ।