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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
की नीविनाम्नी टीका के हैं । अतः लिङ्गशास्त्र प्रवक्ता शंकर रूपा - वतार टीकाकार शंकर से भिन्न प्रति प्राचीन ग्रन्थकार है ।
शङ्कर और उसके लिङ्गानुशासन के विषय में हम इससे अधिक कुछ नहीं जानते ।
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९ - हर्षवर्धन (वि० सं० ६५० - ७०४ )
हर्षवर्धन प्रोक्त लिङ्गानुशासन जर्मन भाषा अनुवाद सहित जर्मनी से सन् १८९० में छप चुका है। इसका सम्पादन डा० फ्राड के ( FRANKE ) ने किया है । तत्पश्चात् इसकी व्याख्या तथा अनेक परिशिष्टों सहित पं० वे० वेंकटराम शर्मा द्वारा सम्पादित उत्तम संस्करण मद्रास विश्वविद्यालय से प्रकाशित हो चुका है।
काल - हर्षवर्धन ने अपना विशेष परिचय नहीं दिया केवल श्रीवर्धनस्यात्मजः इतना ही कहा है । अनेक विद्वानों के मत में यह हर्षवर्धन वाण आदि का प्राश्रयदाता प्रसिद्ध महाराज श्रीहर्ष है' । श्रीहर्ष का राज्यकाल वि० सं० ६५७-७०४ तक माना जाता है । १५ श्रीहर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन का 'वधन' वीरुत् हो सकता है ।
फेक्ट इस मत को स्वीकार नहीं करता । हर्षवर्धन के लिङ्गानुशासन के सम्पादक का भी मत भिन्न है। उनका कथन है कि टीकाकार ने 'ग्रन्थकार द्वारा पादग्रहण पूर्वक व्याख्या लिखने का आग्रह किया ऐसा लिखा है। महाराज हर्षवर्धन जैसे सम्राट् का टीकाकार से पादग्रहणपूर्वक निवेदन करना असम्भव है | अतः इस का लेखक कोई अन्य हर्षवधन है ।"
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हमारे विचार में सम्पादक के कथन में कोई गुरुत्व नहीं है । भारतीय इतिहास में बड़े-बड़े सम्राट् विद्वानों के चरणों में नतमस्तक होते रहे हैं । वररुचि के लिङ्गानुशासन का जो अन्तिम पाठ वररुचि किया है, उसमें भी विक्रमादित्यकिरोटिकोटि
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के
प्रकरण में उदधृत
१. निवेदना, पृष्ठ ३७ ॥
२. प्रार्थितः शास्त्रकारेण पादग्रहणपूर्वकम् । लिङ्गानुशासनव्याख्यां करोति पृथ्वीश्वरः । पृष्ठ २ ।
३. निवेदना, पृष्ठ ३७ ॥