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________________ लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता २८३ 'व्यारिप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्रम्, जैनेन्द्रलक्षणगतं विविधं तथाऽन्यत् । श्लोक ११ । जैनेन्द्र लिङ्गानुशासन के नन्दी के नाम से अनेक उद्धरण हैमलिङ्गानुशासन के स्वोपज्ञ विवरण में मिलते हैं। यह लिङ्गानुशासन इस समय अप्राप्य है। देवनन्दी के परिचय के लिए देखिए यही ग्रन्य भाग १, पृष्ठ ४८६-४६७ (च० सं०)। ८-शंकर (वि० सं० ६५० से पूर्व) हर्षवर्धन ने अपने लिङ्गानुशासन के अन्त में शंकर प्रोक्त लिङ्गानुशासन का निम्न प्रकार उल्लेख किया है 'व्याडेः शङ्करचन्द्रयोर्वररचेविद्यानिधेः पाणिनेः । । सूक्ताल्लिङ्गविधीन विचार्य सुगमं श्रीवर्धनस्यात्मजः ॥७॥ शंकर कृत लिङ्गानुशासन का उल्लेख वाररुच लिङ्गविशेषविधि की टीका के प्रारम्भ में भी मिलता है।' प्रस्पष्ट संकेत-वि० सं० ६५० के लगभग शाश्वत ने 'अनेकार्थ- १५ समुच्चय' नामक कोश लिखा था। उसके प्रारम्भ में लिखा है 'दृष्टशिष्टप्रयोगोऽहं दृष्टव्याकरणत्रयः । अधोति सदुपाध्यायाल्लिङ्गशास्त्रेषु पञ्चसु ॥६॥ इन पाच लिङ्गशास्त्रों में से व्याडि, पाणिनि, चन्द्र और वररुचि . के चार लिङ्गानुशासन निश्चित ही शाश्वत से पूर्ववर्ती हैं। पांचवां २० लिङ्गशास्त्र यदि शंकर का अभिप्रेत हो (जिसकी अधिक सम्भावना है) तो शङ्कर का काल वि० सं० ६५० से पूर्व निश्चित हो जाता है। अन्य शङ्कर-शङ्कर के नाम से प्रक्रियासर्वस्व में अनेक उद्धरण मिलते हैं । ये उद्धरण धर्मकीर्ति के रूपावतार के टीकाकार शंकरराम १. व्यासीयं कविशंकर प्रभृतिभिः..। पूर्व पृष्ठ २८२ में उदधृत ।। श्लोक।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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