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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
द्वादश कोश संग्रह में प्रकाशित हुआ था। इस संस्करण में वररुचि के यावान् कश्चित् त्रान्तः श्लोक से पूर्व १० श्लोक और छपे हैं । ये श्लोक व्याख्याकार के हैं । भूल से लिङ्गानुशासन के श्लोकों के साथ
श्लोक क्रमसंख्या छप गई है। ये श्लोक वररुचि के नहीं हैं, यह निम्न ५ श्लोक से स्पष्ट है
दृष्ट्वा जैमिनिकोशसूत्ररचनां कात्यायनीयं मतम्, व्यासीयं कविशङ्करप्रभृतिभिर्यद् भाषितं निश्चयात् । यच्चानन्दकविप्रवीररचितं बद्धं च यद्दण्डिना, यद्वात्स्यायनशाश्वतादिकथितं कुर्वेऽभिधानाद्भुतम् ॥७॥
ये श्लोक ऊपर निर्दिष्ट लिङ्गानुशासन वृत्ति के संख्या ३२८२ के हस्तलेख में भी निर्दिष्ट हैं । इससे भी स्पष्ट है कि ये श्लोक वृत्तिकार के हैं।
इस टीकाकार का नाम तथा देश काल आदि अज्ञात है।
६-अमरसिंह (विक्रमकालिक) १५ अमरसिय ने स्वीय कोश के तृतीय काण्ड के पांचवें सर्ग में 'लिङ्गादि-संग्रह किया है।
भारतीय परम्परा के अनुसार अमरसिंह महाराज विक्रम का सभ्य है। पाश्चात्त्य और उनके मतानुयायी विद्वान् अमरसिंह को वि० सं० ३००-४०० के लगभग मानते हैं।'
अमरकोश पर जितने व्याख्याताओं ने व्याख्या लिखी है, उन सब ने अमरकोश के इस भाग पर भी व्याख्या की है।
७-देवनन्दी (वि० सं० ५०० से पूर्व) देवनन्दी प्राचार्य ने स्व-व्याकरण से संबद्ध लिङ्गानुशासन का प्रवचन किया था। इसका साक्षात् उल्लेख वामन ने स्वलिङ्गानुशासन २५ के अन्त में इस प्रकार किया है
१. शाश्वत कोश की भूमिका, पृष्ठ २ ।