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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
काशिका का व्याख्याकार जिनेन्द्रबुद्धि ही एक ऐसा व्यक्ति है जो पाणिनीय शास्त्र-संबद्ध धातुपाठ आदि परिशिष्टों को सूत्रकार पाणिनि का प्रवचन नहीं मानता । जिनेन्द्रबुद्धि ने धातुपाठ आदि के अपाणिनीय सिद्ध करने में जो हेतु दर्शाये हैं, उनकी मीमांसा हम तत्तत् प्रकरणों में
आगे यथास्थान करगे। ___व्याकरण-शास्त्र का एक अन्य अङ्ग-शब्दानुशासन के साथ साक्षात् सम्बन्ध रखनेवाला एक अङ्ग और भी है, और वह है परिभाषा-पाठ । यद्यपि परिभाषा-पाठ भी अनेक व्याकरणों के पृथकपृथक उपलब्ध होते हैं, तथापि वे प्रायः अन्य खिलपाठों के समान तत्तच्छास्त्र-प्रवक्ता प्राचार्यों द्वारा प्रोक्त नहीं हैं । इसका संग्रह तत्तत् शास्त्रों के उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने किया।
परिभाषा-पाठ के व्याख्याकारों के मतानुसार ये परिभाषाए भी किसी प्रचीन व्याकरण के सूत्रपाठ के अन्तर्गत थीं।' उत्तरवर्ती
वैयाकरणों ने इन्हें 'लोकसिद्ध' 'न्यायसिद्ध' अथवा 'ज्ञापकसिद्ध' मान १५ कर अपने तन्त्र में सन्निविष्ट नहीं किया । यतः इन परिभाषानों द्वारा
निदर्शित विषयों की उपेक्षा करके किसी भी व्याकरणशास्त्र का कार्य निर्वाह अशक्य है, अतः प्रत्येक व्याकरण के उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने मूल परिभाषापाठ में स्वस्व-शास्त्र के अनुसार ययोचित परिवर्धन परिवर्धन करके इन्हें स्वस्व-शास्त्र के साथ संबद्ध कर लिया है।
व्याकरण-शास्त्र से संबद्ध अन्य ग्रन्थ-व्याकरणशास्त्र से साक्षात संबद्ध ग्रन्थों का निर्देश ऊपर कर दिया है। इनके अतिरिक्त और भी कतिपय ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनका व्याकरणशास्त्र के साथ सम्बन्ध है। वे निम्न हैं
फिट-सत्र, दार्शनिक ग्रन्थ, लक्ष्य-प्रधान काव्य ग्रन्थ, वैदिक व्याकरण (प्रातिशाख्यादि)।
इन ग्रन्थों का संक्षिप्त इतिहास भो इस ग्रन्य में आगे यथास्थान निबद्ध किया जायगा ।
इस प्रकार इस अध्याय में शब्दानुशासन के खिलपाठों का निर्देश करके अगले अध्याय में धातुपाठ में संगृहीत धातुओं के मूल स्वरूप के विषय में विचार किया जाएगा।
१.देखिए परिभाषापाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता' शीर्षक अध्याय २६ ।