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शब्दानुशासन के खिलपाठ
यदि यह व्याख्यान भी न होता तो हम गणपाठ के विषय में सर्वथा अज्ञान में ही रहते।
गणपाठ का सूत्रपाठ में पुनः सन्निवेश-खिलपाठों के शब्दानुशासन से पृथक् करने से उनके अध्ययन-अध्यापन में जो उपेक्षा हुई, उसको यथार्थरूप में जानकर उक्त दोष के परिमार्जन के लिए महाराज ५ भोज ने गणपाठ और उणादिपाठ को अतिप्रचीन परिपाटी के अनुसार अपने शब्दानुशासन में पुनः सन्निविष्ट किया । परन्तु भोजीय शब्दानुशासन (सरस्वती-कण्ठाभरण) के अधिक प्रचलित न हो सकने के कारण महराज भोज के उक्त प्रयत्न का कोई विशेष लाभ नहीं हुपा।
१० सूत्रपाठ और खिलपाठ के समान प्रवक्ता-सम्प्रति पाणिनि से उत्तरकालीन जितने भी व्याकरण शास्त्र उपलब्ध हैं, उनसे संबद्ध धातूपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ, और लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता भी प्रायः वे ही प्राचार्य हैं, जिन्होंने मूलभूत शब्दानुशासन का प्रवचन किया । हमारी दष्टि में एकमात्र कातन्त्र व्याकरण ही ऐसा है, १५ जिसके उणादिपाठ और लिङ्गानुशासन मूलशास्त्र-प्रवक्ता के प्रवचन नहीं है । पाणिनीय व्याकरण से पूर्ववर्ती काशकृत्स्न-तन्त्र का धातुपाठ प्रकाश में आ चुका है। उसके उणापिसूत्रों में से कतिपय सूत्र धातुपाठ की चन्नवीर कविकृत कन्नड टोका में स्मत है। आपिशलि प्राचार्य के धातुपाठ और गणपाठ के कई उद्धरण प्राचीन व्याकरण ग्रन्थों में २० सुरक्षित हैं।
पाणिनि और खिलपाठ--वैयाकरण सम्प्रदाय के अनुसार पाणिनि ने भी स्वीय शब्दानुशासन से संबद्ध धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और लिङ्गानुशासन का प्रवचन किया था। परम सौभाग्य का विषय
__ सम्पूर्ण पञ्चाङ्ग पाणिनीय तन्त्र विविध व्याख्यान ग्रन्थां के २५ सहित अाज हमें उपलब्ध है। पाणिनीय खिलपाठ और जिनेन्द्र बुद्धि-पाणिनीय सम्प्रदाय में
१. इस टीका का संस्कृतभाषा में अनुवाद करके 'काशकृत्स्नधातुव्याख्यानम' के नाम से हम प्रकाशित कर चुके हैं। २. द्र० सं० व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृष्ठ १५६-१५७, च० सं० ।।