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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ धातुपाठ प्रादि के पृथक् प्रवचन का कारण-अति पुरातन काल में धातुपाठ आदि समस्त खिलपाठ शब्दानुशासन के अन्तर्गत ही तत्तत् प्रकरणों में संगृहीत थे, परन्तु उत्तरकाल में मनुष्यों की धारणाशक्ति और आयु के ह्रास के कारण जब समस्त विद्याग्रन्थों का उत्तरोत्तर संक्षेप होने लगा तब प्रधानभूत शब्दानुशासन के लाघव के लिए खिलपाठों को सूत्रपाठ से पृथक् किया गया।
पृथक्करण से हानि-यद्यपि खिलपाठों को सूत्रपाठ से पृथक् कर देने से शब्दानुशासन में निश्चय हो अतिलाघव होगया, तथापि इस पृथक्करण से एक महती हानि भी हुई । आजन्म व्याकरण शास्त्र के अध्ययन-अध्यापन में निरत रहने वाले व्यक्ति भी खिलपाठों के अध्ययन-अध्यापन में उपेक्षा करने लगे। धातुपाठ और उणादिपाठ
का तो थोड़ा बहुत पठन-पाठन कथंचित् चलता रहा, परन्तु सूत्रपाठ .. के साथ साक्षात् संबद्ध अतिमहत्त्वपूर्ण गणपाठ तो अत्यन्त उपेक्षा - का विषय बन गया। गणपठित शब्दों के अर्थज्ञान की कथा तो दूर रही, १५. उसका मूल पाठ भी सुरक्षित नहीं रहा। अन्य व्याकरण संबद्ध गण
पाठों के विषय में तो कहना ही क्या, सबसे अधिक प्रचलित पाणिनीय । तन्त्र के गणपाठ पर भी कोई प्राचीन व्याख्यान ग्रन्थ उपलब्थ नहीं
होता। समस्त गणपाठों के वाड मय में वर्धमान सूरि विरचित (वि०
सं० ११६७) गणरत्न महोधि ही एकमात्र व्याख्यान ग्रन्थ उपलब्ध २० होता है। वर्धमान का व्याख्यान ग्रन्थ किस व्याकरण के गणपाठ पर
आश्रित है, यह यद्यपि पूर्ण रूप से परिज्ञात नहीं, तथापि गणपाठ के परिज्ञान के लिए समस्त वैयाकरणों का यही एकमात्र प्राश्रय है।
. १. 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास' भाग १, पृष्ठ २६-५७
(च० संस्करण) । २५ .. २. पाणिनीय गणपाठ का अनेक हस्तलेखों और अन्य व्याकरणीय गण
पाठों के साहाय्य से एक आदर्श संस्करण हमारे मित्र प्राध्यापक कपिलदेव साहित्याचार्य एम० ए० पीएच. डी० ने तैयार किया है। यह कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
३. पाणिनीयं गणपाठ की एक व्याख्या यज्ञेश्वर भट्ट ने लिखी है । इसका ३० नाम गणरत्नावली है। यह शंक सं० १७६६ (वि० सं० १९३१) में लिखी
गई हैं। इनमें गणरत्नमहोदधि की अपेक्षा कुछ वैशिष्ट्य नहीं है।