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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
चान्द्रवृत्ति - चन्द्राचार्य ने स्वीय शब्दानुशासन के समान अपने लिङ्गानुशासन पर भी एक वृत्ति लिखी थी।
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चन्द्रगोमी के परिचय के लिये देखिये इस ग्रन्थ का प्रथम भाग 'प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक १७ वां अध्याय ।
५ - वररुचि (विक्रम समकालीन)
वररुचि नामक वैयाकरण ने प्रार्या छन्द में लिङ्गानुशासन का प्रवचन किया है। यह लिङ्गानुशासन मूल और किसी वृत्ति के संक्षेप के साथ हर्षवर्धन के लिङ्गानुशासन के अन्त में छपा है ।
वररुचि का काल - वररुचि के काल आदि की विवेचना हम इस १० ग्रन्थ के प्रथम भाग पृष्ठ ४८५ - ४८७ ( च० सं०) पर कर चुके हैं । वाररुच लिङ्गानुशासन के अन्त में निम्न पाठ उपलब्ध होता है
' इति श्रीमद्वाग्विलासमण्डित सरस्वतीकण्ठाभरणानेकविशरणश्री नरपति सेविता विक्रमादित्य किरीटकोटिनिघृष्ट चरणारविन्दाचार्यवररुचिविरचितो लिङ्गविशेषविधिः समाप्तः ।
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इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यह वररुचि विक्रमादित्य का सभ्य था । अतः इसका काल वही है, जो संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य का है। लिङ्गानुशासन का नाम - उक्त उद्धरण से यह भी स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का नाम लिङ्गविशेषविधि है ।
सब से प्राचीन उद्धरण - इस लिङ्गविशेषविधि का सबसे प्राचीन २० उद्धरण जिनेन्द्र विरचित काशिकाविवरणपञ्जिका ७ १११ = पृष्ठ ६३१ में मिलता है
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'तथा चाह लिङ्गकारिकाकार:- ईव्वन्तं यच्चैकाच् शरद्दरदुषत्प्रावृषश्चेति ।'
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यह लिङ्गविशेषविधि की द्वितीय आर्या का पूर्वाध है । हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासन की व्याख्या में - लिङ्गविशेषविधि का ८वां श्लोक हर्षवर्धन की पृथिवीश्वर की व्याख्या में उद्धृत है'यदुक्तम् - दीधितिमेकां मुक्त्वा रश्म्यभिधानं तु पुंस्येव । पृष्ठ ६ ।