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________________ २७६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सकता।" प्राचीन परम्परा-पाणिनीय तथा उत्तरवर्ती वैयाकरण सम्प्रदाय के सभी लेखक इस बात में पूर्ण सहमत हैं कि वर्तमान में पाणिनीय रूप से स्वीकृत लिङ्गानुशासन का प्रवक्ता आचार्य पाणिनि हो है। ५ निदर्शनार्थ हम यहां हरदत्त का एक पाठ उद्धृत करते हैं 'अप्सुमन समासिकतावर्षाणां बहुत्वं चेति पाणिनीय सूत्रम् ।' पदमञ्जरी भाग १, पृष्ठ ४६४। __ यह पाणिनीय लिङ्गानुशासन का २६ वां सूत्र हैं। इसी प्रकार पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ २२ भी द्रष्टव्य है । कात्यायन तथा पतञ्जलि-महाभाष्यकार ने ७ । १ । ३३ में कात्यायन के न वा लिङ्गाभावात् वार्तिक की व्याख्या करते हुए लिखा है-अलिङ्ग युष्मदस्मदी। ___ कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलि के व्याख्यान की पाणिनीय लिङ्गानुशासन के अवशिष्टं लिङ्गम्, अव्ययं कतियुष्मदस्मदः (अन्तिम १५ प्रकरण) सूत्रों के साथ तुलना करने से स्पष्ट है कि कात्यायन और पतञ्जलि इस पाणिनीय लिङ्गानुशासन से परिचित थे। इस प्रकार सम्पूर्ण परम्परा के विपरीत कीथ का नियुक्तिक और प्रमाणरहित प्रतिज्ञामात्र लेख सर्वथा हेय हैं । कतिपय पाश्चात्त्य विद्वानों का यह षड्यन्त्र है कि वे भारतीय प्रामाणिक ग्रन्थों को भी २० विना प्रमाण के अप्रामाणिक कहते रहे, जिससे भारतीय वाङमय की अप्रामाणिकता बद्धमूल हो जाये । क्योंकि ये लोग राजनीति के इस तत्त्व को जानते हैं कि एक असत्य बात को भी बराबर कहते रहने पर वह सत्यवत समझ ली जाती है। आज भारतीय ऐतिहासिक विद्वान् प्रायः ऐसे ही असत्य रूप से प्रतिष्ठापित ऐतिहय को सत्य । समझ कर आंख मींच कर पाश्चात्त्य मतों को प्रमाण मान रहे हैं। व्याख्याकार १. भट्ट उत्पल भट्ट उत्पल ने पाणिनीय लिङ्गानुशासन पर एक व्याख्या लिखी १. हिन्दी अनुवाद, पृष्ठ ५१३ ॥
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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