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२६४ संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
भोजीय-उणादिपाठ-भोजदेव ने अपने व्याकरण से संबद्ध उणादि सूत्रों का प्रवचन किया है। यह उणादिपाठ उसके सरस्वतीकण्ठाभरण व्याकरण के द्वितीय अध्याय के १-२-३ पादों में पठित है।
भोज का साहस-प्राचीन प्राचार्यों ने धातुपाठ गणपाठ उणादि ५ सूत्र आदि का शब्दानुशासन के खिलपाठों के रूप में प्रवचन किया
था। इस पृथक् प्रवचन के कारण व्याकरणाध्येता प्रायः शब्दानुशासन मात्र का अध्ययन करके खिलपाठों की उपेक्षा करते थे। उससे उत्पन्न होनेवाली हानि का विचार करके महाराज भाजदेव ने
अत्यधिक उपेक्ष्य गणपाठ और उणादिपाठ को अपने शब्दानुशासन के १० अन्तर्गत पढ़ने का सत्साहस किया । परन्तु भाजीय शब्दानुशासन के पठनपाठन में प्रचलित न होने से उसका विशेष लाभ न हुआ।
वृत्तिकार १. भोजदेव-हमने इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में 'प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक १७ वें अध्याय में लिखा है कि भोज१५ देव ने स्वीय शब्दानुशासन पर कोई व्याख्या अन्य लिखा था। यतः
भोजीय उणादिसूत्र उसके शब्दानुशासन के अन्तगत है, अतः इन सूत्रों पर भी उक्त व्याख्या ग्रन्थ रहा होगा, इसमें सन्देह नहीं।
२. दण्डनाथ-दण्डनाथ ने सरस्वतोकण्ठाभरण पर हृदयहारिणी नाम्नी व्याख्या लिखी है । यह व्याख्या ट्रिवेण्ड्रम से प्रकाशित होनेवाले सव्याख्या सरस्वतीकण्ठाभरण के तृतोय भाग में छप चुकी है। दण्डनाथकृत उणादि प्रकरण की व्याख्या मद्रास से पृथक् भी प्रकाशित हुई है।
३. रामसिंह-रामसिंह ने सरस्वतीकण्ठाभरण की रत्नदर्पण नाम्नी व्याख्या लिखा थी।
४ पदसिन्धुसेतुकार-किसी प्रज्ञातनामा वैयाकरण ने सरस्वतीकण्ठाभरण पर पदसिन्धुसेतु नाम का प्रक्रियाग्रन्थ लिखा था।
इन व्याख्याकारों के विषय में हम प्रथम भाग में यथास्थान लिख चुके हैं।
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