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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
काल — देवनन्दी के काल के विषय में हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग पृष्ठ ४ε०-४१७ (च० सं०) पर लिख चुके हैं ।
जैनेन्द्र- उणादि पाठ का आधार - जैनेन्द्र व्याकरण से पूर्व पञ्चपादी और दशपादी उणादि पाठ विद्यमान थे । पञ्चपादी के प्राच्य मोदीच्य तथा दाक्षिणात्य तीनों पाठ भी जैनेन्द्र से पूर्ववर्ती हैं । महावृत्ति में उद्धृत कतिपय सूत्रों की इन पूर्ववर्ती उणादिनाठों के सूत्रों से तुलना करने पर विदित होता है कि जैनेन्द्र उणादिपाठ पञ्चपादी के प्राच्यपाठ पर प्राश्रित है । इस अनुमान में निम्न हेतु है
अभयनन्दी ने १११।७५ सूत्र की वृत्ति में एक उणादि-सूत्र उद्घृत किया है - प्रस् सर्वधुभ्यः ।
पञ्चपादी प्राच्यपाठ - सर्वधातुभ्योऽसुन् |४|१८८ ।। प्रौदीच्यपाठ - असुन् । क्षीरतरङ्गिणी, पृष्ठ ९३ । दाक्षिणात्यपाठ—श्रसुन् । श्वेत० ४। १६४ । —असुन् । ६।४६ ।
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दशपादी पाठ
अभयनन्दी द्वारा उद्धृत पाठ पञ्चपादी के प्राच्य पाठ से प्रायः पूरी समानता रखता है । अन्य पाठों में सर्वधातुभ्यः प्रश नहीं है ।
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वृत्ति - मूल सूत्रपाठ के ही अनुपलब्ध होने पर तत्संवन्धी वृत्ति के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं, पुनरपि श्राचार्य देवनन्दी द्वारा स्वीय धातुपाठ और लिङ्गानुशासन पर लिखे गये व्याख्या ग्रन्थों' के विषय में अनेक प्रमाण उपलब्ध होने से इस बात की पूरी संभावना है कि प्राचार्य ने स्वीय उगादिपाठ पर भी कोई व्याख्या लिखी हो ।
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१. धातुपाठ पर लिखे गए धातुपारायण ग्रन्थ के विषय में इसी भाग के पृष्ठ १२७-१२८ पर देखें । लिङ्गानुशासन की व्याख्या के लिए लिङ्गानुशासन के प्रवक्ता और व्याख्याता अध्याय देखें ।