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________________ उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता २६१ वृत्ति-लिबिश ने अपने संस्करण में सूत्रों के साथ तत्साध्य शब्दों का अर्थ-सहित निर्देश किया है। इससे विदित होता है कि उसने इस भाग का सम्पादन किसी वृत्ति के आधार पर किया है। यह वत्ति संभवतः आचार्य चन्द्र की स्वोपज्ञा होगी। उज्ज्वलदत्त ने उणादिवृत्ति २।६६ (पृष्ठ ६३) में लिखा है'केचिदिह वृद्धि नानुवर्तयन्ति इति चन्द्रः । इससे चन्द्राचार्य विरचित वृत्ति का सद्भाव स्पष्ट बोधित होता ७-क्षपणक (वि० प्रथम शती का) प्राचार्य क्षपणक प्रोक्त शब्दानुशासन तथा तत्संबद्ध वृत्ति तथा १० महान्यास का निर्देश हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में कर चुके हैं। वहीं क्षपणक के काल का निर्देश भी किया जा चुका है। क्षपणक व्याकरण से संबद्ध कोई उणादिपाठ था और उस पर कोई वृत्ति भी थी इसका परिज्ञान उज्ज्वलदत्तीय उणादिवृत्ति से होता है। उज्ज्वलदत्त उणादि १३१५८ सूत्र की वृत्ति के अन्त में लिखता १५ है-क्षपणक वृत्तावत्रेतिशब्द प्राद्यर्थे व्याख्यातः । (पृष्ठ ६०) यह उणादिपाठ और उसकी वृत्ति निश्चय ही आचार्य क्षपणक की है यह उणादिपाठ और वृत्तिग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य है। ८-देवनन्दी (वि० सं० ५०० से पूर्व) . प्राचार्य देवनन्दी ने स्वोपज्ञ व्याकरण से संबद्ध उणादिपाठ का २० भी प्रवचन किया था। इसकी स्वतन्त्र पुस्तक इस समय अप्राप्य है। अभयनन्दी की महावृत्ति में इसके अनेक सूत्र उद्धृत हैं।' । १. द्र०—पृष्ठ ३,१७,११८,११९ आदि । विशेष द्र०--जैनेन्द्र व्याकरण महावृत्ति के प्रारम्भ में 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ' शीर्षक हमारा लेख।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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