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उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता २५५ दशपादोवृत्ति का वैशिष्ट्य-दशपादीवृत्ति में अनेक वैशिष्टय हैं। उसका निर्देश हमने यथास्थान स्वसम्पादित दशपादीवृत्ति में किया है । मुख्य वैशिष्टय इस प्रकार हैं
१-यह वृत्ति उपलभ्यमान सभी उणादिवृत्तियों में प्राचीनतम
२- कौनसा शब्द किस धातु से किस कारक में व्युत्पाद्य है, यह इस वृत्ति में सर्वत्र स्पष्ट रूप से दर्शाया है । यथा
'ऋच्छत्ययंते वा ऋतुः कालः ग्रीष्मादिः, स्त्रीणां च पुष्पकालः। कर्ता कर्म च ।' पृष्ठ ८२।
३-पाणिनीय धातुपाठ के साम्प्रतिक पाठ में अनुपलभ्यमान १० बहुत सी धातुओं का निर्देश उपलब्ध होता है । यथा
क-'कृ करणे भौ० । करोति कृणोति करति वा कारः।' पृष्ठ २५३ । __ख-'धून कम्पने सौ० के०, धू विधूनने भौ० । धूनोति धुनाति घुवति वा धुवकः । पृष्ठ १२६, १३० ।
इन पाठों में कृ और धू धातु का भ्वादिगण में पाठ दर्शाया है, परन्तु पाणिनीय धातुपाठ के साम्प्रतिक पाठ में ये भ्वादि में उपलब्ध नहीं होतीं।'
४--इस वृत्ति में एके केचित् अन्ये शब्दों द्वारा बहुत्र पूर्व वृत्तिकारों के मत उद्धृत हैं।'
५-इस वत्ति में पृष्ठ २६, १२४, १९१, १९२, २३६ पर किसी ऐसे प्राचीन कोष के ६ श्लोक उद्धृत हैं, जिनमें वैदिक पदों का संग्रह भी था। पृष्ठ १६१, १९२ में जो श्लोक उद्घत हैं वे तरसान और मन्दसान शब्द वेद विषयक हैं। ६-इसमें पृष्ठ १०४ पर लुग्लोपे न प्रत्ययकृतम् तथा पृष्ठ २३७ २५
१. इनमें से 'कृष' का भ्वादिगण में पाठ क्षीरतरङ्गिणी (१। ६३९ ) में उपलब्ध होता है, परन्तु 'धू' का भ्वादिगण में दर्शन वहां भी नहीं होता।
२. एके पृष्ठ ५६, २६७, ३१८ । केचित् २२२, २६३ । अन्ये ३६७ ।