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उणादि सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता
निघण्टुटीका
दशपादीवृत्ति
बाहुलकत्वादभिधानलक्षणाद्
क- बाहुलकादभिधानलक्षणाद्वा क्वचिन्नकारस्येत् संज्ञा न वा नकारस्येत्संज्ञा न भवति । भवतीत्युणादिवृत्तिः पृष्ठ १०६ । { पृष्ठ २७६ ।
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ख - बाहुलकादभिघानलक्ष
णाद्वा नकारस्येत्संज्ञाया प्रभाव एवास्मिन् सूत्रे वृत्तिकारेणोक्तम् ।
पृष्ठ २१० ।
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ग- णिलोपे चोपधाया हस्व- अस्य गेलु गुपधाह्रस्वत्वं च त्वं निपात्यते । शीलयति शील- { शीलन्ति तद् शीलयन्ति तदिति तीति वा शिल्पम् यत् कुम्भ- शिल्पम्, क्रियाकौशलं कर्म यत् कारादीनां कर्म इत्युणादिवृत्तिः । कुम्भकारादीनाम् । पृष्ठ २६३ । पृष्ठ १७१ ।
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इनमें प्रथम उद्धरण दोनों में सर्वथा समान है, द्वितीय उद्धरण समान न होते हुए भी अर्थतः अनुवादरूप है । तृतीय उद्धरण दोनों पाठों में अर्थतः समान होने पर भी कुछ पाठ भेद रखता है । इस भेद का कारण हमारे विचार में देवराज द्वारा दशपादोवृत्ति पाठ का स्वशब्दों में निर्देश करना है । देवराज के उक्त पाठ का उणादि की अन्य वृत्तियों के साथ न शब्दतः साम्य है न अर्थतः । अतः देवराज ने दशपादीवृत्ति पाठ को ही स्वशब्दों में उद्धृत किया है, यह स्पष्ट है ।
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पुरुषकार
करोति कृणोति करतीति वा कारुः इति च कस्याञ्चिदुणा- | कारुः । पृष्ठ ५३ । दिवृत्तौ दृश्यते । पृष्ठ ३८ |
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३ - दैवग्रन्थ की पुरुषकार नाम्नी व्याख्या के लेखक कृष्ण लीलाशुक्र मुनि (वि० सं० १३००) ने भी दशपादीवृत्ति का पाठ विना नाम निर्देश के 'उद्धृत 'किया है । यथा
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दशपादीवृत्ति
करोति कृणोति करति वा २५
४- - प्राचार्य हेमचन्द्र ( १२वीं शती उत्तरार्ध) ने स्वोपज्ञ उणादिवृत्ति में दशपादी के अनेक पाठों का नाम निर्देश के विना उल्लेख किया है । यथा
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