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उणादि सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता
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ख - हन्ते रन् घ च । ८ । ११४ ।।
इस सूत्र द्वारा 'हन्' धातु से 'रन्' और धातु को 'घ' श्रादेश होता है । घ प्रदेश अकाल होने से पूरी 'हन्' धातु के स्थान पर होता है । इस प्रकार घर शब्द निष्पन्न होता है । वृत्तिकारों ने इसका अर्थ गृह बताया है ।
भट्टोजि दीक्षित ने प्रौढमनोरमा पृष्ठ ८०८ में इस सूत्र को उद्धृत किया है । उसका अनुकरण करते हुए ज्ञानेन्द्र सरस्वती ने भी तत्त्वबोधिनी (पृष्ठ ५६५ ) में इसका निर्देश किया है ।
प्राकृत भाषा तथा हिन्दी भाषा में गृह वाचक जो 'घर' शब्द प्रयुक्त होता है, उसे साम्प्रतिक भाषाविज्ञानवादी 'गृह' का अपभ्रंश मानते हैं । जैन संस्कृत कथाग्रन्थों में बहुत्र घर शब्द का निर्देश मिलता है । यथा - पुनर्नृ पाहूतः स्वघरे गतः । ' इसे तथा एतत्सदृश अन्य शब्दों के प्रयोगों को प्राकृत प्रभावजन्य कहते हैं । ये दोनों ही कथन चिन्त्य हैं, यह इस प्रणादिक सूत्र से स्पष्ट है ।
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इतना ही नहीं क्षीरस्वामी ने क्षीरतरङ्गिणी १०१६८ पृष्ठ २६० १५ का पाठान्तर लिखा है
घर स्रवणे इति दुर्ग: ।
इस पाठ से दुर्ग सम्मत घर धातु से 'अच्' प्रत्यय होकर गृह वाचक ‘घर' शब्द अञ्जसा सिद्ध हो जाता है। दुर्ग के 'घर' धातुनिर्देश से भी घर शब्द शुद्ध संस्कृत का है, गृह का अपभ्रंश नहीं है, २० यह स्पष्ट है ।
दशपादी उणादि १०।१५ में व्युत्पादित मच्छ शब्द भी इसी प्रकार का है जो शुद्ध संस्कृत का होते हुए भी 'मत्स्य' का अपभ्रष्ट रूप माना जाता है ।'
१. पुरातन प्रबन्धकोष, पृष्ठ ३५ । एवमन्यत्र भी ।
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२. इसी प्रकार का पवित्र वाचक 'पाक' शब्द और युद्धार्थक 'जङ्ग' शब्द जो फारसी के समझ जाते हैं शुद्ध संस्कृत के हैं । इनके लिए देखिये इस ग्रन्थ का प्रथम भाग पृष्ठ ५१ (च० सं० ) ।
३. क्षीरतरङ्गिणी ४।१०१ में इसे संस्कृत का साधु शब्द माना है ।