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संस्कृत-व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
ख - पञ्चपादी का एक सूत्र है - लङ्घर्नलोपश्च ( १ ११३५ ) । इसमें टि प्रत्यय की मनुवृत्ति पूर्व सूत्र से आती है । दशपादीकार ने पञ्चपादी के सर्तेरटिः सूत्र सिद्ध सरट् शब्द को डकारान्त सरड् मान कर उसे डान्त प्रकरण में पढ़ा, और लघट् शब्द साधक सूत्र को ५ टान्त प्रकरण में । इस प्रकार विभिन्न स्थानों पर पढ़ने के कारण लघट् शब्द साधक लङ्घर्नलोपश्च सूत्र में घटि प्रत्यय की अनुवृत्ति की प्राप्ति होने पर दशपादी के प्रवक्ता ने लङ्घे रटिर्नलोपश्च (५1१ ) ऐसा न्यासान्तर करके अनुवृत्ति दोष का परिमाजन किया है ।
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इस प्रकार दशपादी के संकलन में जहां-जहां भी अनुवृत्ति दोष उपस्थित हो सकता था, वहां-वहां तत्तत् प्रश जोड़ कर सवत्र अनुवृत्ति दोष का निराकरण किया है ।
ख - दशपादी पाठ में कई ऐसे सूत्र हैं, जो पञ्चपादी पाठ में उपलब्ध नहीं होते । इन सूत्रों का संकलन या तो दशपादी के प्रवक्ता ने किन्हीं अन्य प्राचीन उणादिपाठों से किया हैं अथवा ये सूत्र उसके १५ मौलिक वचनरूप हैं । इनमें निम्न सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं
क - जीवेरदानुक् ॥ १।१६३॥
इस सूत्र को महाभाष्यकार पतञ्जलि ने हयवरट् सूत्र पर उद्धृत किया है। लोपो व्योर्वलि ( ६ | १/६६ ) सूत्र के भाष्य में भी इसकी संकेत किया है । काशिकाकार ने ६ । १९६६ ने भाग १, पृष्ठ २० पर इसे उद्धृत किया है ।
पर तथा न्यासकार
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इस सूत्र का माहात्म्य – यद्यपि भाष्यकार आदि ने इस सूत्र द्वारा 'रदानुक्' प्रत्ययान्त जीरदानु शब्द के साधुत्व का ही प्रतिपादन किया है, तथापि इस सूत्र के संहिता पाठ को प्रामाणिक मानकर जीवेः + श्रदालुक् विच्छेद करने पर जीवदानु पद के साधुत्व का भो बोध होता है । वैदिक ग्रन्थों में दोनों शब्द एकार्थ में ही प्रयुक्त होते हैं । तुलना करो—
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पृथिवीं जीवदानुम् । शु० यजुः १२८ ॥
पृथिवीं जीरदानुम् । तै० सं० १|१|१||
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१. जीवेः+रदानुक्=जीव् + रदानु = लोपो व्योर्वलि (६।१।६६) से वलोप = जीरदानु ।
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