________________
२४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कई स्थानों पर पाठ त्रटित हैं, कई स्थानों पर पाठ प्रागे पीछे प्रस्थान में हो गये हैं। कई स्थानों में संशोधकों ने उत्तरवर्ती संस्करणों में ग्रन्थकार-सम्मत पाठ में परिवर्तन भी कर दिया है। इस प्रकार यह
अत्यन्त उपयोगी और श्रेष्ठतम वृत्ति भी पाठभ्रश आदि दोषों के ५ कारण सर्वथा अनुपयोगी सी बनी हुई है। इसकी श्रेष्ठता और उप
योगिता को देखते हुए इसके शुद्ध संस्करण की आवश्यकता हम चिरकाल से अनुभव कर रहे थे।
वृत्ति का सम्पादन-हमने इस वृत्ति के वैशिष्टय को ध्यान में रखकर इस वृत्ति का संवत् २००२ में सम्पादन किया था, परन्तु अर्थाभाव के कारण चिरकाल तक प्रकाशित नहीं कर सके। अन्त में सं० २०३१ में श्री चौधरी प्रतापसिंह जी ने अपने श्री चौधरी नारायणसिह प्रतापसिंह धर्मार्थ ट्रस्ट (करनाल) द्वारा इसे प्रकाशित किया। इस संस्करण में पाठ शुद्धि के अतिरिक्त ८-१० प्रकार की विविध सूचियों भी दी हैं।
--- अज्ञातनाम वृत्तिकार
१९-अज्ञातनाम तजौर हस्तलेख पुस्तकालय के सूचीपत्र भाग १० में संख्या ५६७७ पर पञ्चपादी उणादिपाठ पर एक अज्ञातनाम वैयाकरण की वृत्ति का निर्देश है।
२०-अज्ञातनाम किसी अज्ञातनाम वैयाकरण की पञ्चपादी उणादिवृत्ति का "उणादिकोश" नाम से तजौर के पुस्तकालय में एक हस्तलेख विद्यमान है । देखो-सूचीपत्र भाग १०, संख्या ५६७८ ।
२१-अज्ञातनाम मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय के सूचीपत्र भाग ३ (सन्
२५