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________________ २४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद् वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता प्रापः स प्रजापतिः॥ ३२॥१॥ यह मन्त्र भी व्यक्त कर रहा है। इस मन्त्र में ब्रह्म प्रजापति आदि का वायु पद से भी संकीर्तन किया है। इतना ही नहीं, निघण्ट, निरुक्त तथा ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में वैदिक अग्नि-वायु-आदित्य आदि शब्दों के जितने अर्थ दर्शाए हैं, वे सब मूलभूत एक धात्वर्थ को स्वीकार करके ही उत्पन्न हो सकते हैं। यदि उन सब अर्थों को धात्वर्थ-मूलक न मानकर रूढ माना जाए, तो एक शब्द की विभिन्न अर्थों में वाचकशक्ति अथवा संकेत स्वीकार १. करना होगा। इस प्रकार बहुत गौरव होगा।' अन्य वैशिष्टय-प्रतिशब्द यौगिक अर्थों के निर्देश के अतिरिक्त इस वत्ति में एक और विशेषता है । वह है-स्थान-स्थान पर निरुक्त निघण्ट ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में निर्दिष्ट वैदिक अर्थों का उल्लेख करना। यथा१५ वर्तते सदैवासौ वृत्रः-मेघः, शत्रः, तमः पर्वतः, चक्र वा।' इसीलिए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उणादिव्याख्या के प्रत्येक पाद के अन्त में उणादिव्याख्यायां वैदिकलौकिककोषे विशिष्ट पद का निर्देश किया है। स्वामी दयानन्द सरस्वती से पूर्ववर्ती कतिपय वृत्तिकारों ने केवल उणादिकोश शब्द का व्यवहार किया है। परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी व्याख्या के लिए वैदिक लौकिककोष पद का उल्लेख किया है। ईश्वर के भी वाचक होते हैं । इसके लिए स्वामी शंकराचार्य का 'अग्निशब्दोऽप्यग्रणीत्वादियोगाश्रयेण परमात्मविषय एव भविष्यति' ( वेदान्तभाष्य ११२॥ २८) वचन द्रष्टव्य है। १. तुलना करो-आकृतिभिश्च शब्दानां सम्बन्धो न व्यक्तिभिः, व्यक्ती. नामानन्त्यात् संबन्धग्रहणानुपपत्तेः । वेदान्त शांकरभाष्य १॥३॥२८॥ व्यक्तीनां त्वानन्त्यात् तासु न शक्तिग्रहः....."। सरूप सूत्रभाष्य (११२१६४) में नागेशोक्ति, बम्बई सं० पृष्ठ ११ । यही दोष अनेक रूढ अर्थों में संकेत मानने पर उपस्थित होता है। २. उणादिकोष १११३ व्याख्या में। ३०
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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