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२/३१ उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता २४१ विदित होता है कि सम्पूर्ण प्रोणादिक पद रूढ नहीं है। अन्यथा स्थानस्थान पर संज्ञायाम पद का निर्देश न करके उणादयो बहुलम् (३। ३।१ ) सूत्र में ही संज्ञायाम् पद पढ़ दिया जाता। इसलिए उणादिवृत्तिकार का कर्तव्य है कि वह दोनों पक्षों का समन्वय करता हुना प्रत्येक प्रौणादिक पद का यौगिक, योगरूढ तथा रूढ अर्थों का निर्देश करे । इस समय उणादिसूत्रों की जितनी भी वृत्तियां उपलब्ध हैं। उन सभी में प्रोणादिक शब्दों को रूढ मान कर ही अर्थ निर्देश किया.
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__स्वामी दयानन्द सरस्वती का साहस-स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैयाकरणों की उत्तरकालोन उक्त परम्परा का सर्वथा परि- १० त्याग करके अपनी वृत्ति में प्रत्येक प्रौणादिक शब्द के यौगिक और रूढ दोनों प्रकार के अर्थों का निर्देश किया है । यथा
करोतीति कारु:-कर्ता, शिल्पी वा।' वाति गच्छति जानाति वेति वायुः-पवनः, परमेश्वरो वा।' पाति रक्षति स पायुः-रक्षकः, गुदेन्द्रियं वा।'
इन उद्धरणों के प्रथम और तृतीय पाठ में कर्ता और रक्षक ये यौगिक अर्थ हैं । तथा शिल्पी और गुदेन्द्रिय योगरूढ वा रूढ अर्थ हैं। __ भगवान् पतञ्जलि तथा नरुक्त आचार्यों के मतानुसार वेद में प्रयुक्त कारु और पायु शब्द के यौगिक अर्थ कर्ता और रक्षक ही सामान्य रूप से हैं, केवल शिल्पी और गुदेन्द्रिय नहीं हैं । यही अभिप्राय २० वृत्तिकार ने यौगिक अर्थों का निर्देश करके दर्शाया है।
द्वितीय पाठ में भी सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः' इस प्राचीन मत के अनुसार वाति के जानाति अर्थ का भी निर्देश किया हैं। इस अर्थ के अनुसार सर्वज्ञ भगवान् परमेश्वर का भी वायु पद से ग्रहण होता है, यह दर्शाया है। इसी अर्थ को यजुर्वेद का
२५ १. उणादिकोष १ । १ व्याख्या में ।
२. द्र०--हेमहंसगणि विरचित न्यायसंग्रह, बृहद्वृत्तिसहित, पृष्ठ ६३ । स्कन्द निरुक्त-टीका, भाग २, पृष्ठ ६२ । तैत्तिरीय प्रारण्यक भट्टभास्कर भाष्य, भाग १, पृष्ठ २७६; इसी प्रकार अन्यत्र भी।
३. अग्नि वायु आदित्य प्रभृति वैदिक शब्द धात्वर्थ को निमित्त मानकर ३०