________________
२४०
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
१८-स्वामी दयानन्द सरस्वती (वि० सं० १९३६)
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उणादिपाठ पर एक व्याख्या लिखी हैं। यह 'उणादिकोष' के नाम से वैदिक यन्त्रालय अजमेर से प्रकाशित
परिचय-स्वामी दयानन्द सरस्वती के वंश, देश, काल आदि के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में 'अष्टाध्यायी के वत्तिकार' नामक १४ वें अध्याय में विस्तार से लिख चुके हैं।
वत्ति-निर्माणकाल वा स्थान-स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस उणादिवृत्ति को रचना महारोणा सज्जनसिंह के राज्यकाल में मेवाड़ की राजधानी उदयपुर नगर में वि० सं० १६३६ में की थी। इसकी भूमिका के अन्त में ग्रन्थ-रचना का समय वि० सं० १९३६, माघ कृष्णा प्रतिपद् अङ्कित है।
वृत्ति का वैशिष्टय-यद्यपि यह वृत्ति स्वल्पाक्षरा है, पुनरपि उणादि वाङमय में यह सब से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
महत्ता का कारण-महाभाष्यकार पतञ्जलि ने उणादयो बहुलम (अष्टा० ३।३।१) सूत्रस्थ बहुल पद का प्रयोजन बताते हुए लिखा है___नंगमरूढिभवं हि सुसाधु । नेगमाश्च रूढिभवाश्चौणादिकाः सुसा
घवः कथं स्युः। न अर्थात् नैगम और रूढ प्रोणादिक शब्दों के भले प्रकार साधत्व
ज्ञापन के लिए पाणिनि ने 'बहुल' शब्द का निर्देश किया है। ___इस कथन से स्पष्ट है कि भाष्यकार के मत में वेद में रूढ शब्द नहीं हैं । दूसरे शब्दों में पतञ्जलि वैदिक शब्दों को यौगिक तथा योगरूढ मानते हैं।
इसी प्रसङ्ग में पतञ्जलि ने शाकटायन के मत में सम्पूर्ण शब्दों २५ को धातुज कहा है । नरुक्त आचार्यों का भी यही मत है।
महाभाष्यकार के इन निर्देशों के अनुसार सभी प्रोणादिक शब्द यौगिक अथवा योगरूढ भी है। इतना ही नहीं, उणादिपाठ में स्थान
स्थान पर संज्ञायाम्' पद का निर्देश होने से अन्तःसाक्ष्य से भी यही ३० १. उणादिकोश २०३२, ८२, १११ इत्यादि ।