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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
काल का अनुमान -नारायण ने अष्टाध्यायी श्र० ३ के द्वितीय पाद के पश्चात् उणादिपाठ की व्याख्या की है । और अ० ६ के द्वितीय पाद के अन्त में फिट्सूत्रों को यह व्याख्यानशैली भट्टोजि दीक्षित विरचित सिद्धान्तकौमुदी और शब्दकौस्तुभ में देखी जातो है । नारायण भट्ट विरचित प्रक्रिया सर्वस्व में भी यही शैली है। इससे विदित होता है कि नारायण का शब्दभूषण सिद्धान्तकौमुदी तथा प्रक्रिया कौमुदी के पश्चात् लिखा गया है। सिद्धान्तकौमुदी के प्रत्यघिक प्रचार होने पर अष्टाध्यायो पर लिखने का क्रम प्रायः समाप्त हो गया था । अतः इस नारायण का काल वि० सं० १८०० के पूर्व १० माना जा सकता है, इससे उत्तरवर्ती तो नहीं हो सकता ।
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यद्यपि नारायण की व्याख्या उणादि के किस पाठ पर थी, यह निश्चित रूप से हम नहीं कह सकते, तथापि इस काल में पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा पञ्चपादी पर हो वृत्ति ग्रन्थ लिखने की परम्परा होने से यह वृत्ति भी पञ्चपादी पर ही हो सकती है, दशपादी पर १५ नहीं ।
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१६ – शिवराम (वि० सं० १८५० के समीप )
शिवराम नाम के विद्वान् ने उणादिपाठ पर एक वृत्ति लिखो थी । इसका उल्लेख शिवराम ने अपने काव्य 'लक्ष्मीविलास' (लक्ष्मी प्रकाश) में किया है । वह लिखता है -
'काव्यानि पञ्च नुतयोऽपि पञ्चसंख्या: टीकाच सप्तदश चैक उणादिकोशः ।'
फ्रेक्ट ने भी अपनी बृहत् हस्तलेखसूची में इस टीका का उल्लेख किया है। साथ ही यह भी लिखा है कि यह वृत्ति सन् १८७४ में बनारस में छप चुकी है ।" यह संस्करण हमारे देखने में नहीं आया ।
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१३द्र० - प्रलवर राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय का सूचीपत्र, उत्तरार्ध ( प्राद्यन्त पाठ निर्देशक भाग) पृष्ठ ८५ ।
२. श्री पं० राममवत्र पाण्डेय (वाराणसी) की सूचनानुसार सन् १८७३ में यह वृत्ति 'षट्कोश संग्रह' में छप चुकी है ।