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उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता २२६ 'कुटादित्वान्ङित्त्वेनैव गुणाभावे सिद्धे तस्यानित्यत्वज्ञापनार्थ पुनः कित्त्वविधानम्, तेन पवित्रमित्यत्र गुणो भवति ।' पृष्ठ १५२ ।
इन पाठों की तुलना से विदित होता है कि सायण श्वेतवनवासी के उणादिवत्ति के पाठ को ही नाम का निर्देश न करते हुए स्वल्प परिवर्तन से उद्धृत कर रहा है । इसलिए श्वेतवनवासी धातु- ५ वृत्ति के रचनाकाल (सं० १४१५-१४२०) से पूर्ववर्ती है।
४-सर्वानन्द ने अमरटीका सर्वस्य में लिखा है'केचित्तु प्रातिदेशिकङित्त्वस्यानित्यत्वाद् गुण एव, नोवङ् इति मन्यन्ते ।' भाग ३, पृष्ठ २०।
सर्वानन्द की इस पंक्ति का भाव श्वेतवनवासी की उद्धृत १० पंक्ति से सर्वथा अभिन्न है। इसलिए यदि सर्वानन्द ने यह पंक्ति श्वेतवनवासी की उणादिवृत्ति के आधार पर लिखी हो, तो श्वेतवनवासी को वि० सं० १२१६ से पूर्ववर्ती मानना होगा।
६-श्वेतवनवासी जहाँ भी डुधाञ् धातु के अर्थ का निर्देश करता है, वहां प्राय: दानधारणयोः पाठ लिखता है। क्षीरस्वामी देवराज १५ यज्वा स्कन्दस्वामी दशपादिवत्तिकार आदि प्राचीन ग्रन्थकार डधात्र का दानधारणयो: अर्थ ही पढ़ते हैं।' निरुक्तकार ने भी रत्नधातमम् पद का अर्थ रमणीयानां धनानां दातृतमम् ही किया है। (सायण ने धारणपोषणयोः अर्थ लिखा है) इस प्रकार प्राचीन अर्थ का निर्देश करनेवाले व्यक्ति को भी. १३०० शती से प्राचीन ही मानना युक्त है। २०
इन सब हेतुओं के आधार पर हमारा विचार है कि श्वेतवनवासी का काल विक्रम की बारहवीं शताब्दो है । परन्तु १३ वीं शती से अर्वाचीन तो उसे किसी प्रकार नहीं मान सकते, यह स्पष्ट है।
श्वेतवनवासी की वृत्ति उणादिसूत्र के दाक्षिणात्य पाठ पर है।
श्वेतवनवासी वत्ति के दो पाठ-इस वृत्ति के दो पाठ हैं। इनका २५ निर्देश सम्पादक ने A.B संकेतों से किया है। नारायण भट्ट (उणा-. दिवृत्ति पृष्ठ १२३) A पाठ को मूल मान कर उद्धृत करता है।
१. क्षीरस्वामी-क्षीरतरङ्गिणी ३।१०, देवराजयज्वा निघण्टुटीका पृष्ठ १२६६ स्कन्द ऋग्भाष्य ११॥१॥
२. निरुक्त ७।१५।।