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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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अतः उसका वंश, देश, काल आदि सब अज्ञात है। हां, वृत्ति के प्रत्येक पाद के अन्त में जो पाठ उपलब्ध होता है, उससे विदित होता है कि उज्ज्वलदत्त का अपर नाम जाजलि था ।'
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भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध संस्थान पूना के व्याकरणविषयक हस्तलेखों के सन् १९३८ में मुद्रित सूचीपत्र में संख्या २६७-२७३ तक ७ हस्तलेख हैं । इनमें संख्या २६७, २६८ में 'जाजलि के स्थान में क्रमश: 'जेजलि' 'जेजिलि तथा संख्या २६६ में जेजलीय पाठ मिलता है । संख्या २७३ में 'श्रीमहामहोपाध्याय नागदेव उज्ज्वलदत्तविरचिताया पाठ उपलब्ध होता है। इस हस्तलेख के विषय में सूचीपत्र में लिखा है कि इस में पृष्ठमात्रा का प्रयोग है । इस के १० आवरण पत्र पर कीलहार्न की टिप्पणी है - यह 'उज्ज्वलदत्त का ग्रन्थ नहीं है, उससे संगृहीत है।' इस हस्तलेख के अन्त में निर्दिष्ट 'नागदेव' नाम का समावेश कैसे हुआ यह विचारणीय है । हो सकता है उज्ज्वलदत्तीय वृत्ति का यह संक्षेपक हो । भावी लेखकों को इस हस्तलेख को अवश्य देखना चाहिये ।
देश - यद्यपि उज्ज्वलदत्त ने अपने निवास स्थान का उल्लेख नहीं किया तथापि उसकी उणादिवृत्ति के एक पाठ से ज्ञात होता है कि वह बंगाल का निवासी था । वह इस प्रकार है
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उज्ज्वलदत्त ने वलेर्गुक् च ( १।२० ) सूत्र की व्याख्या में वकारादि वल्गु शब्द को बकारादि समझ कर वल संवरणे धातु के स्थान पर २० बकारादि बल प्राणने धातु का निर्देश करके बकारादि बल्गु शब्द की निष्पत्ति दर्शाई है । यह भूल बकार वकार के समान उच्चारण के कारण हुई है। बकार कार का समान उच्चारण-दोष बंगवासियों में चिरकाल से चला आ रहा है ।
१. इति महामहोपाध्यायजाजलीत्यपरनामधेय श्रीमदुज्ज्वल दे तु विरचिता- २५ यामुणादिवृत्ती प्रथमः पादः ।
२. यत्तु उज्ज्वलदत्तेन सूत्रे पवर्गादि पठित्वा बल प्राणनः इत्युपन्यस्त तल्लक्ष्यविरोधादुपेक्ष्यम्, 'अयं नाभा वदति वल्गु वो गृहे' (ऋ० १०१६२१४) इत्यादौ दन्तोष्ठ्चपाठस्य निविवादत्वात् । प्रौढमनोरमा, १४ ७४१