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२/२८ उणादि सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता
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सम्मान बृहत् पाठ है । धातुमात्र से प्रत्यय - विधायक सूत्र में सर्वधातुभ्यः इसी पाठ में मिलता है ।'
श्रौदीच्य पाठ - किसी प्रौदीच्य देशवाशी वैयाकरण की पञ्चपादी पाठ पर वृत्ति उपलब्ध न होने से उसके वास्तविक स्वरूप का निर्धारण करना कठिन है। कश्मीर देशवासी क्षीरस्वामो ने अमर- ५ कोश की टीका और क्षीरतरङ्गिणी में जिन उणादिसूत्रों को उद्धृत किया है, यदि वे दशपादी के न हों, तो उनके आधार पर पञ्चपादी के औदीच्य पाठ की कल्पना की जा सकती है । धातुपाठ और अष्टाध्यायी के औदीच्य और दाक्षिणात्य पाठों की तुलना से इतना अवश्य जाना जाता है कि इन पाठों में स्वल्प ही अन्तर रहता है ।
दाक्षिणात्य पाठ - श्वेतवनवासी तथा नारायण भट्ट प्रभृति ने जिस पञ्चपादी पाठ पर अपनी वृत्तियां लिखी हैं, वह दाक्षिणात्य पाठ है, क्योंकि ये दोनों वैयाकरण दाक्षिणात्य थे । दाक्षिणात्य पाठ में प्रौदीच्य पाठ में दर्शाया हुआ सर्वधातुभ्यः अंश उपलब्ध नहीं होता ।
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हां. 'इन्' प्रत्यय विधायक सूत्र ( ४ १२६ श्वे० १२८ ना० ) में सर्वधातुभ्यः पद मिलता है । परन्तु इसमें भी प्राच्य पाठ से कुछ वैलक्षण्य है । प्राच्य पाठ में सर्वधातुभ्य इन् पाठ हैं, और दाक्षिणात्य मैं इन् सर्वधातुभ्यः । इस प्रकरण में एक बात और विवेचनीय है, वह है दोनों वृत्तियों में इन् सर्वधातुभ्यः सूत्र के श्रागे समानरूप से पठित पचिपठिका शिवाशिनन्दिभ्यः इन् सूत्र में पुनः इन् प्रत्यय का निर्देश । इससे प्रतीत होता है कि दाक्षिणात्य पाठ में इस प्रकरण में कुछ पाठभ्रंश अवश्य हुआ है ।
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अब हम कालक्रमानुसार पञ्चपादी उणादिपाठ के व्याख्याकारों का वर्णन करते हैं—
१. वामन ने भी काशिका ७ २६ में 'सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्' पाठ उद्धृत किया है । काशिकावृत्ति प्रष्टाध्यायी के प्राच्य पाठ पर है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । अतः उसके द्वारा उणादि के प्राच्य पाठ का उद्धृत होना स्वाभाविक है। न्यासकार ने भी प्राच्यपाठ को उद्धृत किया है । यथा - न्यास ६।१।१५८ मैं 'सर्वधातुभ्योऽसुन्' (भाग २, पृष्ठ २६८ ) पाठ ही मिलता है ।
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