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________________ २१६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास होता हैं, उसका प्रारम्भ पूर्व खण्ड के अन्त में ही कर दिया जाता है। यथा--निरुक्त अ० १, खण्ड १ का अन्तिम पाठ है-- 'इन्द्रियनित्यं वचनमौदुम्बरायणः।' द्वितीय खण्ड में इसी विषय में विवेचना की है। उसका प्रारम्भ ५ होता है 'तत्र चतुष्ट्वं नोपपद्यते युगपदुत्पन्नानाम्' आदि वाक्य से। यही शैली शतपथ में भी है। वहां भी एक ब्राह्मण अन्तर्गत कण्डिकाएं पूर्वकण्डिका के अन्तिम और उत्तर कण्डिका के आदि पाठ से सुसंबद्ध हैं। १. इस प्राचीन शैली के अनुसार यदि पञ्चपादी उणादिगण के पाद-विभागों पर विच र किया जाए, तो प्रतीत होगा कि पञ्चपादी पाठ के मल पाठ में तीन ही पाद थे। पहला पाद वर्तमान द्वितीय पाद पर समाप्त होता था, और द्वितीय पाद वर्तमान तृतीय पाद पर । अर्थात् पूर्वपाठ के प्रथम पाद में वर्तमान के प्रथम-द्वितीय पाद थे, १५ द्वितीय पाद में वर्तमान तृतीय पाद, और तृतीय पाद में वर्तमान चतुर्थ-पञ्चम पाद थे। पञ्चपादी के अवान्तर पाठ-पञ्चपादी उणादि की जितनी भी वृत्तियां सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनके सूत्रपाठ में अनेक प्रकार को विषमताए हैं। किसी भी वृत्ति का सूत्रपाठ किसी दूसरी वृत्ति के सूत्रपाठ के साथ पूर्णतया नहीं मिलता। सूत्रों में न्यूनाधिकता और सूत्रगत पाठभेदों का बाहुल्य देखने में आता है। उनकी सूक्ष्मता से विवेचना करने पर ज्ञात होता है कि पञ्चपादो के मलभूत कई पाठ हैं। तीन प्रकार के मूल पाठ-हमारे विचार में अष्टाध्यायी तथा २५ धातुपाठ के समान पञ्चपादो उणादिपाठ के भो तीन पाठ हैं-प्राच्य प्रौदीच्य और दाक्षिणात्य। प्राच्य पाठ-उज्ज्वलदत्त, भट्टोजि दीक्षित, स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रभूति ने जिस पाठ पर अपनी वृत्तियां रची हैं, वह मूलतः प्राच्य पाठ है। उणादि का यह पाठ अष्टाध्यायी और धातूपाठ के
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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