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उणादि सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता
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ने भी भूवादयो धातव: ( १ ३ | १ ) सूत्र में पक्षान्तर में वा पद के साथ संयोजित आदि पद को प्रकारवाची कहा है । ऐसी अवस्था में पूर्व आचार्यों के निर्देशानुसार उणादयो बहुलम् सूत्र पढ़ते हुए आदि पद को प्रकारवाची माना जा सकता है । अथवा यह प्राचीन आचार्यों का सूत्र हो और पाणिनि ने स्वीकार कर लिया हो । ( द्र० भाग १, ५ पृष्ठ २४६-२५२) ।
पञ्चपादी उणादिसूत्र पाणिनीय हैं अथवा दशपादी उणादिसूत्र, इस विषय में हमारा विचार इस प्रकार है
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हमने आपिशलि के प्रकरण में पञ्चपादी उणादिसूत्रों के प्रापि - शलिप्रोक्त होने की सम्भावना में जो युक्ति उपस्थित की है, उसके १० अनुसार हमारा विचार हैं कि पञ्चपादी उणादिसूत्र प्रापिशलि - प्रोक्त हैं, और दशपादी उणादिसूत्र पाणिनि प्रोक्त।
वास्तविकता यह है कि पञ्चपादी और दशपादी दोनों उणादिपाठों के प्रवक्ता निर्ज्ञात हैं । पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा दोनों पाठों का श्राश्रयण करने से दोनों पाठों के प्रवान्तर पाठों तथा वृत्तिकारों १५ का वर्णन हम यहीं करना उचित समझते हैं ।
पञ्चपादी - उणादिपाठ
पञ्चपादी का मूल त्रिपादी - वर्तमान पञ्चपादी उणादिसूत्रों में दो शैली उपलब्ध होती हैं। एक शैली तो यह है कि पूर्व पाद के अन्त का और उत्तरपाद के आदि के प्रत्यय भिन्न-भिन्न हैं । यथा - २० प्रथम पाद के अन्त में कनिन् प्रत्यय, और द्वितीय पाद के आरम्भ में
प्रत्यय है । इसी प्रकार चतुर्थ पाद के अन्त में
कनसि प्रत्यय और
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पञ्चम पाद के आरम्भ में डुतच् प्रत्यय है। दूसरी
शैली यह है कि
पूर्वपाद के अन्त में वर्तमान प्रत्यय का ही उत्तर पाद के प्रथम सूत्र में
सम्बन्ध रहता है । यथा - द्वितीय पाद के अन्त में श्रूयमाण ध्वरच् २५ प्रत्यय का तृतीय पाद के प्रथम सूत्र में, तथा तृतीयपाद के अन्त में धूयमाण ई प्रत्यय का ही चतुर्थ पाद के प्रथम सूत्र में सम्बन्ध है ।
प्राचीन ग्रन्थों में द्वितीय शैली ही देखी जाती है । निरुक्त में एक पाद के अन्तर्गत खण्ड विभागों में देखा जाता है कि पूर्व खण्डस्थ विषय को पूर्ण करके उत्तर खण्ड में जिस बात का प्रतिपादन करना ३०