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२१४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास टोपधः (सूत्र ६३) णोपधः (सूत्र ६६) योपधः (सूत्र ६६) आदि में उपलब्ध होता है।
६-पाणिनि अष्टाध्यायी में जिन प्रत्ययों का धातुमात्र से विधान मानता है, वहां 'सर्वधातु' शब्द का निर्देश न करके केवल प्रत्ययमात्र ५ का निर्देश करता है । यथा--
ण्वुलतृचौ । ३।१११३३ ॥ तृन् । ३।२।१३५॥ लुङ् । ३।२।११० । वर्तमाने लट् । ३।२।१२३॥
इसी प्रकार दशपादी उणादिपाठ में भी जो प्रत्यय धातुमात्र से इष्ट हैं, उनमें केवल प्रत्ययमात्र का निर्देश मिलता है । यथाइन् । ११४६ ॥
ष्ट्रन् । ८७६॥ असुन् । ६।४६ ॥
मनिन् । ६७३॥ पञ्चपादी के उज्ज्वलदत्त, भट्टोजि दीक्षित प्रभृति वैयाकरणों द्वारा समादृत पाठ में इन प्रत्ययों के प्रसङ्ग में सर्वत्र 'सर्वधातुम्यः'
शब्द का निर्देश उपलब्ध होता है । यथा१५ सर्वधातुभ्य इन् ।४।११७॥' सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन् । ४।१५८॥'
सर्वधातुभ्योऽसुन् ।४।१८८॥' सर्वधातुभ्यो मनिन् ।४।१४४॥'
भट्टोजि दीक्षित ने उपर्युक्त पञ्चपादी सूत्रों की व्याख्या करते हुए सर्वधातुभ्यः पद को प्रक्षिप्त तथा व्यर्थ कहा है।'
उपर्युक्त प्रमाणों से प्रतीत होता हैं कि उपरि निर्दिष्ट ग्रन्थकार २० दशपादी पाठ को पाणिनीय मानते हैं।
दशपादी पाठ को पाणिनीय न मानने में एक युक्ति दी जा सकती है, वह यह है कि पाणिनि ने उणादयो बहुलम् (३।३।१) सूत्र में उण् प्रत्यय के साथ आदि पद का संयोग किया है। दशपादी में
अनि प्रत्यय प्रारम्भ में है, उण प्रत्यय का निर्देश प्रथम पाद के २५ अस्सीवें सूत्र में मिलता है । पञ्चपादो में उण् प्रत्यय प्रथम सूत्र में
ही पठित है। . इस कथन का यह समाधान हो सकता है कि पाणिनि ने अपने कई सूत्रों में प्रादि पद को प्रकारवाची माना है। भगवान् पतञ्जलि
१. यह सूत्र संख्या उज्ज्वलदत्तीय वृत्ति के कलकता संस्करण के अनुसार ३० है।
२. द्रष्टव्य-प्रौढमनोरमा, पृष्ठ ७६६, ८०० ।