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________________ २०८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शब्दानुशासन में इस क्रम-परिवर्तन से अकारान्त पद न होने से कोई दोष नहीं होगा, परन्तु इससे मकारान्तों को मुटु का आगम प्राप्त हो जायेगा, जो कि इष्ट नहीं है । तथापि आपिशलि के 'जमङणनाः स्व स्थाना नासिकास्थानाश्च' शिक्षासूत्र ( ११२४ ) और पाणिनि के ५ 'डजणनमाः स्वस्थाननासिकास्थानाः' शिक्षा सूत्र (११२४) के अन नासिक वर्गों के पाठक्रम पर ध्यान दिया जाये, तो स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्याहारसूत्र का ञ म ऊ ण न वर्णक्रम प्रापिशल अभिप्रेत है, और इसी कारण उसने अपनी शिक्षा में भी उसी क्रम को अपनाया है। इससे विदित है कि पाणिनीय प्रत्याहारसूत्र में प्रापिशल वर्ण१० क्रम को ही स्वीकार किया है, यह क्रम उसका अपना नहीं है। प्रापिशलि ने प्रत्याहारसूत्र में वर्णक्रम का परित्याग करके ञ म ङ ण नम् यह क्रम क्यों अपनाया ? यदि इस पर विचार किया जाए तो मानना होगा कि उसे कहीं पर जम् प्रत्याहार बनानो इष्ट रहा होगा । वह जम् प्रत्याहार उणादि पाठ के जमन्ताड्डः' सूत्र में १५ उपलब्ध होता है । यद्यपि समन्ताड्डः' सूत्र पञ्चपादी और दश पादी दोनों पाठों में समानरूप से पठित है, पुनरपि दशपादी पाठ का प्रवचन पञ्चपादी पाठ के आधार पर हुआ है (इसकी विस्तृत मीमांसा आगे की जाएगी), इसलिए पञ्चपादी पाठ मूल होने से प्राचीन है। हां, कई वैयाकरण पञ्चपादी उणादिपाठ को प्राचार्य २० पाणिनि का प्रवचन मानते हैं, परन्तु जमङणनम् प्रत्याहारसूत्र जम हुणनाः स्वस्थाना० प्रापिशल शिक्षासूत्र और 'अमन्ताड्डः उणादिसत्र की तुलना से यही प्रतीत होता है कि दशपादी पाठ का मूल आधारभूत पञ्चपादी पाठ प्राचार्य प्रापिशलि द्वारा प्रोक्त है, और दशपादी पाठ सम्भवतः प्राचार्य पाणिनि द्वारा परिष्कृत है । २५ यह हमारा अनुमानमात्र है । इसलिए यदि पञ्चपादी सूत्र आपिशलिप्रोक्त नहीं हों, तो निश्चय ही ये पाणिनि-प्रोक्त होंगे। अतः पञ्चपादी उणादिसूत्रों के वृत्तिकारों का वर्णन हम पाणिनि के प्रकरण में करेंगे। १. पञ्चपादी १११०७॥ दशपादी ५७॥
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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