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२०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महादेव वेदान्ती तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रभृति वैयाकरणों ने उणादिपाठ के लिए उणादिकोश ( कोष ) शब्द का प्रयोग किया है यथा
क-इत्युणादिकोशे निजविनोदाभिधेये वेदान्तिमहादेवविरचिते । पञ्चमः पादः सम्पूर्णः।
ख-इति श्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वतीकृतोणादिव्याख्यायां वैदिकलौकिककोषे पञ्चमः पादः समाप्तः ।
ग-... पानीविषिभ्यः पः इति पः पानीयम् इत्युगादिकोषः । शब्दकल्पद्रुम, पृष्ठ ५०६।। १० घ-शिवराम तथा राजशर्मा ने भी उणादिपाठ का 'उणादि
कोश' नाम से व्यवहार किया है । द्र०–पञ्चपादी वृत्तिकार, सं० १६, १७, २० ।
उणादि-निघण्टु-निघण्टु शब्दकोष का पर्यायवाची है। अतः वेङ्कटेश्वर नाम के वत्तिकार से उणादिपाठ का उणादि-निघण्ट शब्द १५ से भी व्यवहार किया है । द्र०–पञ्चपादी वृत्तिकार, संख्या १३ ।
उणादिगण-स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उणादिसूत्रों के लिए उणादिगण शब्द का भी व्यवहार किया है । यथा
क-इस उणादिगण की एक वृत्ति भी छपी है। उणादिकोष, भूमिका पृष्ठ ४। २० ख-भूयात् सोऽयमुणाविरुत्तमगणोऽध्येतुर्यशोवृद्धये । उणादिकोष व्याख्या के अन्त में।
इसी प्रकार संस्कारविधि तथा पत्रों और विज्ञापनों में भी उणादिगण शब्द का व्यवहार देखा जाता है।
ग-हैमोणादिवृत्ति के हस्तलेख में हैमोणादिवृत्ति के सम्पादक " जोहन किर्ट ने अपनी भूमिका (पृष्ठ १) में एक हस्तलेख का अन्तिम पाठ इस प्रकार उद्धृत किया है
'इत्याचार्यहेमचन्द्रकृतं स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणं समाप्तम् ।'
उणादि के लिये कोष वा निघण्टु शब्द प्रयोग का कारण-उणादि सूत्रों के लिये कोष वा निघण्टु का व्यवहार क्यों प्रारम्भ हुआ,