________________
उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता २०३
उणादिसूत्रों की निदर्शनार्थता कोई भी शब्शानुशासन चाहे कितना ही विशाल क्यों न हो, वह अनन्तशब्दराशि के सम्पूर्ण शब्दों का संग्राहक नहीं हो सकता। इसलिए समस्त शब्दानुशासन चाहे वे कितने ही विस्तृत क्यों न हों, निदर्शकमात्र ही होते हैं । पुनरपि उणादिसूत्र अत्यन्त स्वल्पकाय होने ५ के कारण विशेष रूप से तथाकथित रूढ शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय-विभाग के निदर्शकमात्र ही हैं। भगवान पतञ्जलि ने उणादिसूत्रों के महत्त्व और निदर्शनत्व के विषय में लिखा है'बाहुलकं प्रकृतेस्तनुदृष्टे: प्रायः समुच्चयनादपि तेषाम् । कार्यसशेषविधेश्च तदुक्तं नैगमरूढिभवं हि सुसाधु । नाम च धातुजमाह निरुक्त व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम् । कार्याद्विद्यादनबन्धम् .....।३।३।१॥'
अर्थात्-उणादयो बहुलम् (३।३।१) सूत्र में बहुल पद का निर्देश इस लिये किया है कि थोड़ी सी धातुओं से उणादि प्रत्ययों का १५ विधान देखा जाता है । प्रत्ययों का भी प्रायः करके समुच्चय किया है, सब का समुच्चय (पाठ) नहीं किया। प्रकृति प्रत्यय के कार्य भी शेष रखे हैं, सूत्रों के द्वारा सब कार्यों का विधान नहीं किया। [सूत्रकार ने ऐसा क्यों किया, इसका उत्तर यह है कि सभी निगम =वेद में पठित तथा रूढ शब्दों का साधुत्व परिज्ञात हो जाये । निरुक्त में २० सभी नामशब्दों को धातुज-यौगिक कहा है, और व्याकरण में शकट के पुत्र शाकटायन का यही मत है। इसलिए जिन शब्दों का प्रकृति प्रत्यय आदि विशिष्ट स्वरूप लक्षणों से समुत्थ =ज्ञात नहीं है, उनमें प्रकृति को देखकर प्रत्यय की ऊहा करनी चाहिये, और प्रत्यय को देखकर प्रकृति की । इसी प्रकार धातु-प्रत्यय-गत कार्यविशेष २५ को देखकर अनुबन्धों का ज्ञान करना चाहिए।
उणादिपाठ के नामान्तर प्राचीन ग्रन्थकारों ने उणादिपाठ के लिए उणादिकोश तथा उणादिगण शब्दों का भी व्यवहार किया है
उणादिकोश ( कोष )-पञ्चपादी उणादिपाठ के व्याख्याकार ३०