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चौबीसवां अध्याय
उणादि-सूत्रों के प्रवक्ता और व्याख्याता
अति पूराकाल में जब संस्कृत भाषा के सम्पूर्ण नाम (जाति-द्रव्यगुण-शब्द) और अव्यय (स्वरादि-निपात) शब्द एक स्वर से यौगिक ५ माने जाते थे, उस समय उणादिसूत्र शब्दानुशासन के कृदन्त प्रकरण
के अन्तर्गत ही थे, परन्तु उत्तरकाल में मनुष्यों की धारणाशक्ति और मेधा के ह्रास के कारण जब यौगिक शब्दों के धातु-प्रत्ययसंबद्ध यौगिकार्थ की अप्रतीति होने लगी, तब यौगिकार्थ की अप्रतीति तथा स्वरवर्णानुपूर्वी विशिष्ट समुदाय से अर्थ विशेष की प्रतीति होने के कारण संस्कृतभाषा के सहस्रों शब्द वैयाकरणों द्वारा रूढ मान लिए गये । इस अवस्था में भी वैयाकरणों में शाकटायन तथा नरुक्तों में गार्य भिन्न सभी प्राचार्य तथाकथित रूढ शब्दों को भी यौगिक ही मानते रहे। यास्कीय निरुक्त के प्रथमोध्याय के १२।१३।१४ वें
खण्डों में इस विषय की गम्भीर विवेचना की गई है, और अन्त में १५ तथाकथित रूढ शब्दों के यौगिकत्व पक्ष की स्थापना की है।
शाकटायन के अतिरिक्त प्रायः सभी वैयाकरणों द्वारा सहस्रों शब्दों को रूढ मान लेने पर भी उन्होंने यौगिकत्वरूपी प्राचीन पक्ष की रक्षा तथा नरुक्त आचार्यों के सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुए रूढ शब्दों के धातु-प्रत्यय निदर्शक के लिये उणादिसूत्र रूपी कृदन्त भाग को शब्दानुशासन से पृथक् करके उसे शब्दानुशासन के खिलपाठ अथवा परिशिष्ट का रूप दिया।' ___ इस प्रकार उणादिसूत्रों को शब्दानुशासन का परिशिष्ट बना देने पर वैयाकरणों की दृष्टि में चाहे इनका मूल्य कुछ स्वल्प हो गया
हो, परन्तु नरुक्त आचार्यों के मतानुसार सम्पूर्ण शब्दों को यौगिक २५ माननेवाले वैदिक विद्वानों की दृष्टि में इनका मूल्य शब्दानुशासन के
कृदन्त भाग की अपेक्षा किसी प्रकार अल्प नहीं है।
१. द्रष्टव्य-उन्नीसवां अध्याय, भाग २, पृष्ठ ६.१६ ।