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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
२६. वृद्ध वैयाकरण
वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि में शरदादि गण के व्याख्यान में किसी वृद्ध वैयाकरण का मत उद्धृत किया है । बाह्मणादि के व्याख्यान में 'वृद्धा:' पद से सम्भवतः उसे ही स्मरण किया है ।
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१ - 'ऋक्पूरब्धूःपथात् इत्यनेनैव समासान्तस्य सिद्धत्वादस्य पाठो न संगतः प्रतिभाति परं वृद्धवैयाकरणमतानुरोधेन पठितः । पृष्ठ १५ । २ - 'गडुलदायादविशस्ति विशम्पुरशब्देभ्यस्त्वतलौ न भवत इति वृद्धाः । पृष्ठ २२५ ।
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वर्धमान की भूल
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वर्धमान ने प्रथम उद्धरण में प्रतिपथम् अनुपथम् शब्दों का शरदादि गण में पाठ प्रसंगत बताया है, परन्तु यह उसकी भूल है । ऋक्पूरब्धू० सूत्र से 'अ' प्रत्यय होता है । उस अवस्था में प्रत्ययस्वर होने पर पूर्व - पदप्रकृतिस्वर प्राप्त होता है । परन्तु शरदादि में पाठ होने से टच् प्रत्यय होता है । उस अवस्था में पूर्व प्रकृतिस्वर की प्राप्ति को टच् १५ चित्करणसामर्थ्य से बाधकर अन्तोदात्तत्व होता हैं । इतना ही नहीं, प्रत्यय होने पर स्त्रीलिङ्ग में टाप् की प्राप्ति होती है । टच् प्रत्यय होने पर टित्वात् ङीप् होता है । इन विशेषताओं के होने पर भी उक्त पदों का शरदादि में पाठ असंगत बताना उसका स्वरशास्त्र से ज्ञान प्रकट करता है ।
२७. सुधाकर
वर्धमान ने अव्यय शब्दों से उत्पन्न होनेवाली नाम-विभक्तियों के संबन्ध में विचार करते हुए सुधाकर का एक मत इस प्रकार उद्धृत किया है
सुधाकरस्त्वाह अव्ययेभ्यस्तु निस्संख्येभ्योऽव्ययादाप्सुप इति ज्ञापकाद् विभक्त्युत्पत्तिः ।' गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ २३ ।
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सुधाकर ने यह वचन स्वरादि गण के व्याख्यान में लिखा है, श्रथवा अष्टाध्यायी की व्याख्या में, यह कहना कठिन है ।