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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___महाराज कुमारपाल द्वारा इस ग्रन्थ को रचना होने से स्पष्ट है कि इसका काल विक्रम को तेरहवीं शती का प्रथम चरण है।
इस हस्तलेख का लेखनकाल शक सं० १३८३ (वि० सं० १५१८) है। हस्तलेख पृष्ठ मात्रायुत प्राचीन लिपि में हैं।
इस हस्तलेख का सामान्य परिचय तथा आद्यन्त निर्दिष्ट पाठ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर के अध्यक्ष श्री डा० गोपाल नारायण जी बहुरा के अनुग्रह से प्राप्त हुआ।
--- २१. अरुणदत्त (सं० ११९० वि० से पूर्ववर्ती)
वर्धमान ने अरुणदत्त के मतानुसार अर्धर्चादि गण के शब्दों की १० एक विस्तृत सूची उपस्थित करके लिखा है
'अरुणदत्ताभिप्रायेणेते दर्शिताः' । पृष्ठ ६४ ।
किसी अरुणदत्त के मत उज्ज्वलदत्त की उणादिवृत्ति पृष्ठ १४२, १६३ पर उद्धृत हैं । एक अरुणदत्त अष्टाङ्ग हृदय का व्याख्याता भी
है। इनसे यह अभिन्न है अथवा भिन्न, इस विषय में हम निश्चित रूप १५ से कुछ नहीं कह सकते।
एक अरुणाचार्य का निर्देश हैम व्याकरण बृहद्वत्ति अवचूर्णि पृष्ठ १९८ पर मिलता है। हमारा विचार है कि अरुणाचार्य नाम से अरुणदत्त का ही निर्देश है।
२२. द्रविड वैयाकरण इस प्राचार्य के धातुपाठ तथा गणपाठ सम्बन्धी अनेक मत क्षोरतरङ्गिणी, माधवीया धातुवृत्ति तथा गणरत्नमहोदधि में उपलब्ध होते है, परन्तु हम इसके विषय में कुछ नहीं जानते ।
२३. पारायणिक पारायण नाम के दो ग्रन्थ है-धातुपारायण और नामपारायण । २५ इन ग्रन्यों के अध्ययन करनेवाले वैयाकरण पारायणिक कहाते हैं।